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________________ (४३६) - अथ श्री संघपट्टकः - NNNNNNNNMAAVAAVAN हीए. एम थन्निधान कोश तथा आगम ए वेनुं वचन जे ए हेतु . माटे लोकमां तथा लोकोत्तरमा सामान्यथी तथा विशेषथी आयतन शब्द देवमंदिरना अर्थने कहेनार . टीकाः अथ किं तदायतनं यत् ज्ञानादित्रयोपघातिनिमि- . चत्वा दनायतनं जवतीत्याह जत्थ साइम्लिया वहवे तिन्नचित्ता श्रणारिया मूलगुणप्पमिसेवी अणाययणं तं वियाणाहि ॥ साधर्मिका लिंगतः समान धर्माणो बहवो जिन्नवृत्ता ब्रष्टाचारा अनायों मूलगुणतिसेविनो निर्दयतया प्राणातिपातादि प्रस: क्ता यत्र, ते निवसति तदनायतनं ॥ अर्थः-हवे ते अनायतन ते शुं तो तेनो विचार लखे जे ज्ञानादित्रणर्नु उपघातक ते अनायतन कहीए एम शास्त्रमा कथु ले ते वचन जे जे जगाए साधर्मिक एटले लिंगथी समान धर्मवाळा घणाक जुदां जुदां आचरण करता भ्रष्टाचारी अनार्य लोक मूलगुणप्रतिसेवी एटले निर्दय पणे प्राणातिपात आदिकने विषे श्रासक्त लोको जे.जगाए वसे बे ते अनायतन कहीए. टीका:-तथा जत्थ साहम्मिया वहवे निन्नचित्ता अणारिया ॥ उत्तरगुणपमिसेवी अणाययणं तं वियाणाहि सुगमा ॥ नवरं उत्तर गुणप्रतिसे विनोऽशुक्रपिमादिग्राहिणः॥ तथा ॥जत्थ साहम्मिया बहवे जिन्नचित्ता अगारिया॥ लिंगवेस पमिः बन्ना अगाययणं तं वियाणादि ॥ सुगमा ॥ नवरं लिंगवेषमात्रेण प्रतिबन्ना आच्छादिताः प्राकृत लोकैः सुविहितेन्योऽलक्ष्य. माण विशेषा इतियावत् ॥ इति बादतः ॥ भाज्यतरतः पुनर्मू
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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