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________________ - अथ श्री संघपट्टका - क्षणथी पारंजीनेज प्राणातिपातने विषे प्रवृत्ति थइ ए हेतु माटे ते कमु जे. टीकाः-दीकादातुश्च दोषसंख्यापि वक्तुं न शक्यते॥तछिदया तावर्जतुजातव्याघातप्रवृत्तः। तदहोमूढा एतावतं पापकलापमात्मन्यारोपयंतोनाविनवज्रमणान्मनागवि न विन्यतीति ॥ अर्थः-दीक्षा देनारने पण जे दोष थाय ने ते दोषनी सं. • ख्या पण कहेवा समर्थ नथी केमजे ते दीदा आपनारनी दिक्षाए करीने तेटला जंतुना समूहनो नाश थवामां प्रवृत्ति थए हेतु माटे अहो आतो आश्चर्य हे जे ए मूढ पुरुप आटलोवधो पापनो समूह पोताने विषे श्रारोपण करे जे पण आगळ थये एवं संसारमा चमण थशे तेथी लगार मात्र पण जय पामता नथी. टीका:-तमुक्तं ॥ ज्योतिज्यों तितकृत्स्नदेवसदनप्रायःप्रदीपोच्चरदीपाचिनिकुरवचुंबनन्नवत्तंगत्पतंगैषाणां ॥ निस्त्रिंशानिशि सूत्रयंतिकुधियो मुग्धामुधामी दहा नंदिसंदितिसम्मिता स्वपरयोः संसार कारागृहे ॥ अर्थ:-ज्योतिः एटले ग्रह, नक्षत्र जेवू देदीप्यमान जे समस्त देवमंदिर तेमां घणा दीवाथी नत्पन्न थइ दिव्यकांति तेनो, जे समूह तेना स्पर्शथी जंपापात करता जे पतंगीया तथा तेनकायि प्राणि तेना नाश करवामां तरवार समान पृष्ट बुद्धिवाला था मुग्ध
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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