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________________ . (३९८) - जय श्री संघषक NWwwm 'रं निपततां बदाशःपतंगादिजंतूनां व्यापत्तिनिमित्तजावान्कीदृशी· दीक्षादातगृहीत्रीः सर्वविरतिः॥ . अर्थः-ते रात्रिए नांद्य मांगवी ते पण महा दोषने करनारी बे. तेज वात कही देखामे जे दीक्षादिकने श्रर्थे निश्चनां: यतुं करवापणुं ने जे दीक्षा ले ते तो स्थूल सूक्ष्म प्राणातिपात. ते थकी विराम पामवारुपी के लक्षण जे ते रात्रिये प्रकाश निमित्त उजवल कर्या जे गणाक दीवारुप जे तेजस्कायिक जीव तेनुं पो. ताची मेळे शरीरने फरश थवाथी नाश थवापणुं जे ए हेतु माटे दीवादीवाने विष निरंतर पमतां जे लखो पतंगियादिक जीब तेना नाशन निमित्त कारण वे ए हेतु माटे दीक्षा लेनारने ने दीक्षा था. पनारने सर्व विरतिरुप दीक्षा केवीथ एटले एते सर्व विरितरुप. दीका थरके सर्व हिंसामयी-दीका थश्तेतुं तारा-मनमा विचारी जो. टीकाः-तथाच करेमिजतेसामाश्यमित्यादि सर्वविरति-. सामायिकसूत्रस्यापि तत्क्षणं शिष्येणोच्चार्यमाणस्य वैयर्थ्यप्रसं: 'गः॥ शिष्यस्य दीक्षाप्रथमदाणादारज्यप्राणातिपातप्रवृत्ते ॥ तमुक्तं ॥सवंतिनाणिनणं, विरईखबुजस्स सबिया नत्थि ॥ सोसबविरश्वाई. चुक्कर देसंचसखंच ।। अर्थः-वळी दीक्षा लेती वखत ' करेमिजते ' इत्यादिक • सर्व विरति सामायिक सूत्रनुं जे उच्चारण शीखे कयं तेनुं तेज व. खत व्यर्थ थवानो प्रसंग आवशे केमजे शिष्यने दिशामा प्रथम
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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