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________________ 9. अय श्री संघपष्टक - (३१३) mmarwomaamwam AM - ॥ मूल काव्यम् ॥ . यै जाँतो नच वहितो नच नचक्रीतोऽधमोनच । प्राग्दृष्टो नच बांधवो नच नच प्रेयानचप्रीणितः॥ तैरेवात्यधमाधमैः कृतमुनिव्याजैर्बलाबाह्यते। नस्योतः पशु वजनोयम निशं नीराजकं हा जगत्॥१६॥ टीका:-बैलिगिनिरयं जनो नचजातो जनेरंतर्जावितज्यर्थत्वान्न जनितः पित्रादिरुपतया न जन्म लंनितः ॥चकारा: सर्वेपि समुच्चयार्थाः अवधारणार्थावा॥ अथ माजूजातस्तथापि वर्धितो नविष्यत्ये तावतापि वलातमाहनसिद्धिरतबाह ॥ वर्जितोनचेति एवमुत्तरपदेष्वप्याशंक्य योजना कार्या वर्द्धितो योगक्षेमादिसंपादत्तेन शरीरपोषं प्रापितः ॥ अर्थः-जे लिंगधारी आ श्रावक जननो कांश वाप नथी जे एनुं जेमतेम कहेढुं श्रावक अंगिकार करे ने एटले लिंगधारीए था जन उत्पन्न कर्यों नथो. जन धातुनां अंता विज्यंतनो अर्थ के ए हेतु माटे नथी उत्पन्न कर्यो ए प्रकारनो अर्थ थयो. एटले पितादि रुपपणे जन्म आप्यो नथी. आ जगाए सर्वे पण चकारनो समुच्चयरुपी अर्थ डे, अथवा अवधारणरुपी अर्थ ठे वळी आशंका करी कहे ते जे जन्म आपनार न होय तो पण वृद्धि करनार तो हो के जेथी वलात्कारे तेलिंगधारीना वचननी माथे नपानी लेवानी तिदियाय. एज हेतु मादे विशेषण कहे दे जे ए विंगधारीए
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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