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________________ - अथ श्री संघपटक (२६५) MA टीकाः-यदपि रानवणीय इत्यागमवलने व्याख्यानादौर्सिहासनोपवेशनोपपादनं तदपि न सचेतसांचतेश्चमत्कारकरं ॥ तथाहि ॥ राजोपनीतसिंहासनोपविष्टा गणधरा व्याख्यांतीति किंराजोपनीतएव सिंहासनउपविष्टा अहोराजोपनीतेपि उपविष्टाश्त्यपि किमुउपविष्टा एव नतोपविष्टा अपीतिचत्वार: पक्षाः कषायाइव जवदनिमतव्याघातददानत्तिष्टंते ॥ अर्थः-जे पण राउवणीय इत्यादिके आगम बले करीनेव्या. ख्यानादिकने विषे सिंहासनने विषे बेसवार्नु प्रतिपादन कर्यु ते पण पंमितना चितने चमत्कारनुं करनार एवं नश्री. तेज कही देखामे के जे राजाए प्राप्त कर्यु जे सिंहासन ते नपर बेठा एवा जे गणधर ते व्याख्यान करे इत्यादि. ए जगाए तने पूरीए जे शुं राजाए श्रापेढुं एज सिंहासन ते उपर बेठेला के अहो राजाए आपेला सिंहासनने विषे पण बेठेला ने वेगए जगाए जे अपिशब्द तेथी बीजा वे विकल्प जे शुं वेठाज के बेग पण ए चार प्रकारना पक्ष नत्पन्न थया, ते जाणे तारा चार कषाय मूर्तिमान उत्पन्न थया होय ने शुं ? एम तारा मतने नाश करवामां अतिशे माह्या वे. टीका-तत्र यद्यायः पदस्तदागणधरन्याय नुसारेण नवतामपि राजोपनीतसिंहासनस्थानामेव व्याख्याप्रसंगः ॥ श्रथ द्वितीयस्तदा राजोपनीते तदन्योपनीतेपीत्ययमर्थ स्तत्रापि विकल्पे किं तदन्योपनीते राजव्यतिरिक्तजनोपनीतं थाहोस्वोपनीतं ॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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