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________________ 19 अथ श्री संघपट्टका - (२१७) roMANGYAnwwwwwww जक्तपानादिलक्त्यन्निधानात् ॥ यमुक्तं ॥ क्तगघयगुलगो-.. रसफासुंथपमिलाहरासमणसंघे ॥असगणवागाणंति ॥तथा सणं सइविहवे साहणंवत्थमाइ दायव्व।गुणवंताण विसेसोति॥ अर्थः जे माटे आ जगाए तो गणधरना शिष्यादिकने पोत पोताना गुरुए देखामी जे स्थिति आदिक तेनुं उबंधन थये सते अनंत संसारीपणुं थाय एम का माटे जे में गणधरना शिष्य होय तेने तेने पोतपोताना गणधरनी मर्यादा ग्रहण करवी एवा अतिप्राय ए शास्त्र वचन जे एम निश्चय करीए बीए. ने श्रावकने तो सर्वथा धार्मिक गच्चने विषे विशेष रहित नक्त पान आ. दिकनक्ति करवायूँ कहेवापणुंडे ए हेतु माटे, ते शास्त्रमा टीका:-अतोनेदानीतनरुढ्या प्रतिनियतगछपरिग्रह विषयत्वं तेषां सिध्यति॥ यत्त्वशक्तस्य तदसइसबस्स गबस्स ॥ तथा दिसाइतबविन जे सत्थी इत्युक्तगाथयोश्चतुर्थपादाज्यों धर्मगुरुषु ताछेवा विशेषण दानन्नक्तिप्रतिपादनं तत्तेषां - तिकारतया नतु तत्स्वीकारविषयतयेति ॥ अर्थ:--ए हेतु माटे आ काळनी रुढि प्रमाणे पोते पोतानां गढ बांधीने ते गबना अनिमानवाळा श्रावकने पोताना करीराखवा एम शास्त्रवमे सिद्ध थतुं नथी ने वळी अशक्त तमे का जे 'तदसइसबस्स' ए गाथा तथा दिसाश्चतवि' ए गाथा, ते वे गायाना चोथा पादथी धर्मगुरुने विषे तथा तेना गबना विषे विशेष
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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