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________________ (१९२) 49. अथ श्री संघपट्ट का coooorane - नथी केमजे मुनिने योग्य एवी पण शुरू वसति आदिकने विषे ए हेतुर्नु रहेवापणुं होत तो ए हेतु अनेकांतिक केहेवात पण ते शुद्ध निवासने विषे देवाव्यना उपजोगनुं लेशमात्र पण देखवापणुं नथी माटे ए हेतु अनेकांतिक पण नथी एटले व्यनिचारी नथी. टीका:-नापि सत्प्रतिपक्षः प्रतिबलानुमानानागमोक्तत्वादिनां प्रागेव निरस्तत्वात् ॥ नापि बाधितविषयः प्रत्यक्षादिजिरनपढ़तविषयत्वात् ॥ ननुप्रत्यदेणेव संप्रति जिनगृहेवासदर्शनेन तहासस्य धर्मिणो मुन्ययोग्यतायाः साध्यधर्मस्य हेतुविषयस्य वाधितत्वेन विषयापहारात्कथं नहेतु बाधितपिषय इतिचेन्न ॥ अर्थ-वळी ए हेतु सत्प्रतिपक्ष नथी केमजे प्रतिवादिनां अनुमान जे शास्त्रोक्त चैत्यवास ने तेनुं पूर्वे खंमन कर्यु माटे ए हेतुने हगवनार प्रतिपक्षीनो हेतु नथी. माटे वळी ए हेतु बाधित विषय वाळो पण नथी केमजे प्रतिपक्षादि प्रमाणवझे एहेतुनो विषय नाश पाम्यो नथी. माटे एटले प्रत्यक्ष जणाय ने जे मुनि होय ते चैत्यमां रहेता नथी माटे ए प्रकारे पांच हेत्वान्नास एटले दोष ते श्रा हेतु. मां नथी माटे श्रा सझेनु कहेवाय प्रतिवादिना जे सर्व हेतु ते अ. सद्धेनु करी देखामया माटे हवे लिंगधारी आशंका करे जे जे श्रा कालमा प्रत्यक्षपणे जे जिनजुवनमा साधुनो निवास देखाय ने तेणे करीने ते साधुना निवासरुपी जे धर्म तेने मुनिनी अयोग्यतारुपीजे साध्य धर्मरुप देवडव्यनो उपन्नोग थाय ए रुपी जे हेतु तेनो विषय जे अयोग्यता तेनुं बाधितपणुं थयुं तेणे करीने विषयनो अपहार थयो एटले विषय नाश पास्यो एटले अयोग्य हेतु योग्यपणुं थयुं, माटे
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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