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________________ - अथ श्री संघपटक : - टीकाः-नचायमसिद्धो हेतुस्तत्र वसतां देवाव्यनोगस्यो. कन्यायेन साधितत्वात् ॥ नापि विरुद्धः हेतोर्मुनियोग्यतयाव्या. प्यत्वेहि स स्यान्नचैव मस्ति ॥ देवाव्योपनोगस्य मुनियोग्यतायाः प्रागेवापाकरणात् ॥ नाप्यनेकांतिकः ।। मुनियोग्येपिशुद्धवसत्यादौदेतोवृत्तौ हि सन्नवेनचैवंतत्रदेवव्योपत्नोगस्य लेशतोप्यनावात् ॥ । अर्थः-न्याय शास्त्रमा पांच प्रकारनो हेत्वाजास जे एटले हेतु जेवा जणाता होय पण हेतु नहि, खोटा हेतु. तेनां नाम जे एक तो असिद्ध,बीजो विरुझ,अने त्रीजो अनै कांतिक अथवा सव्यनिचारी, चोथो सत्रिपक्ष अने पांचमो बाधित ए पांच प्रकारना हेवाजासमांनो एक हेत्वाजास जे अनुमान प्रयोगमांन आवतो होयते अनुमान प्रयोग साचो कहेवाय ने वीजो जुहोकहेवाय एटले अप्रमाणिक कहेवाय माटे आ जगाए मुनिने जिनजुवनमां निवास करवो देवव्यनो नपजोग थाय ए हेतु माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगने विषे ए पांच प्रकारनो हेत्वान्नास ने तेमांनो एके पण श्रावता नथी. के जेथी ए प्रयोग खोटो थाय. ए प्रकारनी दृढता टी. काकार करे ले जे चैत्यमा रहेनारने देवपच्यनो उपजोग थाय ए हेतु असिद्ध नथी केमजे तेमां रहेनारने देवजयनो उपनोग पूर्वे कह्यो एवे न्याये करीने सिद्ध थाय ए हेतु माटे. वळी ए हेतु विरुक पण नथी. केमजे देवाव्यनो नपनोग मुनिने योग्य नथी एम पूर्वे निषेध देखाइयो बे माटे मुनिनी योग्यताए सहित जो ए हेतु होय एटले मुनिने देवभव्य जोगववान शास्त्रमा जो होय तो ए हेतु विरुद्ध थाय पण ते तो नथो माटे, ने वळी ए हेतु अनेकांतिक पण
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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