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________________ -g: अथ श्री संघपट्टका - (१८७) MARAwarwww wwwwwne Marwww : टीकाः सम्यग् ज्ञान दर्शनचारित्रनुवृत्तिं विनाच जिनगृह • बिंबसंदनावेपितीयोंचित्तिः ॥ अतएव जिनांतरेषु केषुचिद्र लत्रयपवित्रमुनि विरहात् कापि जिनविसंनवेपि तीर्थोच्छेदः प्रत्यपादि ॥ स्वमतिकल्पिता चेयं प्रकृतातीर्थाव्यवच्छि, ति रागमविसंवादित्वायेव ।। अर्थः ते माटे एम सिद्धांत थयो जे सारी ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी अनुवृत्ति एटले परंपरा ते विना जिनगृह विव होय तो पण तीर्थनो उच्छेद थाय माटेज केटलाक जिननां आंतरां तेने विषे रत्नत्रयवंते पवित्र एवा मुनिनो विरहथी को जगाए पण जिन बिबनो संलव तोपण तीर्थनो नच्छेद शास्त्रमा पतिपादन कों बे, मोटे आ चैत्यवास ते तीर्थनो न नच्छेद ते तो पोतानी मति कल्पेलो ने शास्त्र विरुद्ध माटे त्याग करवा योग्य . टीका:-यदाह ॥ नय समइ वियप्पेणं, जहातहा कयमिणं फलेदे ॥ अवि आगमाणुवाया रोगतिगिच्छाविहाणं व ॥ किंच नवतु जिनगृहायनुवृत्ति स्तीर्थाव्यच्छित्तिस्तथापिन यति चैत्यवासजिनगृहाद्यनुवृत्त्योः श्यामत्वचैत्रतनयत्वयो रिव प्रयोज्यप्रयोजकनावः ॥ नहि यतिचैत्यांतवासप्रयुक्ता तदनुवृत्तिमा तदंतर्वस निरपि यतिन्ति रतिसातशीलतया तच्छीर्णजीर्णोकारादिचिंतामकुर्वाणै स्तदनुवृत्तेरनुपपत्ते स्तस्मात्तचिंताप्रयुक्ता तदनुवृत्तिस्तांच श्राद्धैरेव कुर्वनिस्तदनुवृत्तिः कथं न स्यात् ॥ अर्थ:-जिनघरं आदिकनी अनुवति करवी एज तीर्थनोज
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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