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________________ (१८६) - अथ श्री संघपट्टका - कि.मिष्फलेन चैत्यवाससंरंजेण ॥ न चैतावता तीर्थाव्यवेदकायनिःश्रेयसादिफल सिद्धिः ॥ मिथ्याष्टिपरिग्रहितानां प्रतिमानां मोक्षमार्गानंगत्वेनानिधानात् ॥ मिदिहिपरिग्रहिया पमिमान जावगामो न ढुतित्ति वचनात् ॥ . अर्थमाटे एटलाज वसे ते मानेलो जे तीर्थनो न उल्लेद तेनी सिद्धि थई मादेशा वास्ते निष्फल चैत्यवासनो समारंन्न करुंटुं ने जो तुं एम कहे जे एटला वमेज तीर्थनो नछेदन थाय ने मो. क्षादि.फलनी सिकि पण थाय तो मिथ्याष्टिए ग्रहण करी जे प्र. तिमा, तेने मोक्षमार्गना अंगपणुं पण नथीएम शास्त्रमा का डे ते हेतु माटे जे मिथ्याष्टिये ग्रहण करी जे प्रतिमा तेथी नावनो समूह.न होय एवा वचनथी ए प्रथम पक्षने सुकी बीजा पदनो अंगीकार कर.॥ टीका: अथ द्वितियः कल्पः॥ तर्हि लैवतीर्थाव्यवनिति र. न्युपेयतां मोक्षमार्गत्वात् ॥ किं तदननुगुणोत्सूत्रचैत्यवासाश्रयणेन यदाद लीलो सजालगोवा गणिवेढवा न सुग्गर्शनति॥ जं तत्थ नाणदसणचरणा ते सुगईमग्गो ॥ अर्थ:-हवे ते बीजो पक्ष कहीए जीए जे परंपराये ज्ञानदर्शन चारित्रनी प्रवृत्ति थाय ए रुप बोजो कल्प तेज तीर्थनो न उबेदए प्रकारे अंगीकार करो केम जे मोक्षमार्ग बे ए हेतु माटे ते मोदमार्गने अनुगुण नहीं एवो जे नत्सूत्र चैत्यवास तेनो आश्रय करवो तेणे करीने शुं जे माटे शास्त्रमा का जे.
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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