SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ g अथ श्री संघका टीका-अस्यार्थः, यद्याशातनादोषाच्चैत्यावस्थानं यतीनां न संगबते तदा तीर्थकृतां सुरैयाावर्षणादिका गंधोदकसेचन समवसरणरचनप्रमुखा प्राभूतिका पूजोपचाररूपा कृता, तत्र समवसरणे श्रमणानां कथं केन प्रकारेणाऽवस्थानं नणितमिति । अर्थः-ए शास्त्रनां वचन कह्यां तेनो अर्थ टीकाकार कहे के जे प्रथम पूर्वपक्ष करीने उत्तर कहेशे जे जो आशातनाना दोषंथी यतिने चैत्यमां निवास करवो नथी संजवतोतो तीर्थकरनी देवताये जे पुष्पवृष्टि, सुगंधीमान जलतुं सिंचवें, समवसरणनी रचना इत्यादि जेट सामग्री पूजाना उपचार रुप करी ते समोसरणने विषे सा. धुने कीये प्रकारे रहेवानुं कडं ये टीका: अत्रैव परःस्वपन सिद्धये प्रसंगमाह ॥जसमणाण न कप्प एवं एगाणिया जिणवरिंदा ॥ कप्पइय गश्न जे सिकाययणे तयविरुकं ॥ अत्राहि यथा जिनानामेका कित्वप्रसंगेनाऽनाहार्यप्रातिहार्यप्रवृतिसमवसरणवि यती नामवस्थान कल्पते एवं चैत्यायतनेपि न विरुध्यते ॥ अर्थः-या जगाये जेम साधु विना जिननुं एकाकीपणुं यवाना प्रसंगे करीने क्यारे पण प्रातिहार्य विनानुंसमवसरण होय नहीं माटे निश्चे प्रातिहार्य सहित जे समवसरणनी पृथ्वी तेने विषे साधुने रहे करपे तेमज चैत्यमां पण साधुने निवास करको तेमा का विरोध नथी.
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy