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________________ na V AAAAAA - अथ श्री संघपट्टक अजिनिवेश करे बे तेणे करीने एबंधायले माटे ए श्रोत्मकर्मकहीए. टीकाः यमुक्तं ॥ श्रहवा जंतग्गाहिं, कुण अहे संजमाउ नेए वा ॥ हणश्व चरणायं से अहकम्म तमाय हम्मवा ॥ था. हाकम्मपरिणर्ड, फासुअमवि संकिलिकपरिणामो॥ आययमाणो बजाश्तं जाणसु अत्तकम्मंतु ॥ अर्थ:-श्रा बे गायानो लावार्थ उपर श्रावी गयो . . . . टीका:-एवं विधाधाकर्मशब्दस्य चतुर्दा व्युत्पतिरार्ष स्वात् ॥अत्रच वृत्ते एक वाक्यस्थेनैव यबब्देन शकलवाक्यार्थे दीपिते यत्प्रतिपदं यचब्दोपादानं तसंघादिनक्तस्यात्यंतपरिहर•णीयताख्यापनार्थ ॥ एतेन यतीनामाधाकर्मनोजनसमर्थनाय यत्परैरन्यधायि पूर्वाधरितः धनाधिपत्यादि श्रमणसंघनिमित्त निर्वृतन्नतादिनापि धर्माधारं शरीरंधारयेत्तदा को दोष इत्यंत तदीप प्रतिक्षितं मंतव्यम् अर्थः-ए प्रकारे आधाकर्म शब्दनी चार प्रकारे व्युत्पति करी जे एक तो आधायकर्म, बीजी अधःकर्म, त्रीजी श्रात्मन्न ने चोथी आत्मकर्म; तेतो ऋषि वचनथी प्रमाणरुप बे. श्रा काठयने विषे एक वाक्यमा रहेलो जे यत् शब्द तेणे सकल वाक्यनो श्रर्थ 'प्रगट कयों ने जे पदेपदे यत् शब्दनुं ग्रहण कर ते तो संघादि जो. • जननुं अत्यंत परिहरवापणुं जगाववाने अर्थे जे. एणे करीने यतिने ‘श्राधाकर्म भोजन करवाने अर्थे लिंगधारीए प्रतिपादन कर्यु हतु जे । पूर्वे मोंटा गृहस्थ हता, इत्यादि प्रारंनीने श्रमण संघ निमित्त नीप"जाव्यु जे 'नोजनादि तेणे करीने धर्मनुं श्रधिारभूत शरीर धारण
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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