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________________ आगम के अनमोल रत्न ६५५ कृष्ण ने पद्मोत्तर का पीछा किया । नगरी के पास पहुँचे तो देखा कि नगरी के द्वार बन्द हैं । उन्होंने नरसिंह का विकराल रूप बनाया और भयंकर गर्जना करते हुए पैरों को जमीन पर पटकने लगे। उनके पाद प्रहार से सारी नगरी हिल उठी । उसके कोट कंगूरे और द्वार पके पत्ते की तरह झरने लगे। बड़े-बड़े महल धराशायी हो गये । पद्मोत्तर यह दृश्य देख कर घबरा गया। उसका कलेजा धकधक करने लगा । भय से विह्वल हो कर वह द्रौपदी के पास पहुंचा और पैरों में पड़ कर प्राणों की भीख मागने लगा। द्रौपदी ने कहा-पद्मनाभ ! तुम ने मेरा अपहरण करवा कर 'एक भयंकर अपराध किया है । तेरे जैसे कामी और लंपट को 'यही सजा मिलनी चाहिये परन्तु तू इस समय मेरी शरण में आया है इसलिये तेरी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है । खैर, जो हुआ सो हुआ अव बचने का एक ही उपाय है। तुम स्नान करके गले वस्त्र को “पहनो और अपने अन्त.पुर के परिवार को साथ में लो। उपहार के लिए विविध रत लो और मुझे आगे करके कृष्ण की सेवा में पहुंची। हाथ जोड़ कर अपने अपराध की क्षमा मागो। श्रीकृष्ण दयालु हैं वे शरणागत को अवश्य रक्षा करते हैं। द्रौपदी के क्थनानुसार पद्मोत्तर ने सब किया । वह श्रीकृष्ण के पास गोले वस्त्र पहिने रानियों के परिवार के साथ पहुँचा और उनके चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाने लगा। श्रीकृष्ण ने पद्मोत्तर से कहा-पद्मनाभ ! मेरी बहन को यहाँ लाकर तूने मौत को ही निमंत्रण दिया है लेकिन अव तू मेरी शरण में आया है इसलिए तुझे अभय देता हूँ । अव तू निर्भय हो कर राज्य कर सकता है। श्रीकृष्ण द्रौपदी को लेकर पाण्डवों के पास आये और द्रौपदी "उन्हें सौंप दी । उसके बाद वे रथ पर बैठ गये और सुस्थित देव की सहायता से समुद्र पार करने लगे।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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