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________________ आगम के अनमोल रत्न ६४३ . उपाय दान, शील, तप और विशुद्ध भावना है । इनका आचरण करने से पाप कर्म नष्ट होंगे और शुभ कर्म का बन्धन होगा। धर्म की आराधना करने से जीव सुखी हो जाता है । अतः आज 'से'तुम मेरी भोजन शाला में तरह तरह का भोजन बनवाकर याचको भादि को दान दो जिससे तुम्हारी आत्मा को शान्ति मिलेगी। सुकुमालिका को यह उपाय रुचिकर लगा। उसने उसी दिन से दान देना आरंभ कर दिया । उसकी भोजन शाला में इतना भोजन बनने लगा कि कोई भी याचक खाली हाथ उसके घर से नहीं लौटता था। एक बार गोपालिका नाम की बहुश्रुत साध्वी आहार के लिये सुकुम्पलिका के घर आई । सुकुमालिका ने भागन्तुक साध्वियों का खूब सन्मान किया और उन्हें बड़ी चाह से श्रद्धा पूर्वक आहार पानी बहराया और कहा-साध्वीजी ! आप अनेक घरों में, नगरों में घूमती हो। जड़ी बूटी यंत्र मत्र आदि भो जानती हो । मेरा पति मुझे छोड़कर चला गया है। क्या आप ऐसा मंत्र जानती हो जिससे मेरा पति मेरे वश में हो जाय और में उसके लिये इष्ट बन जाऊँ । साध्वीजी ने कहा-वहिन ! मंत्र प्रयोग तो दूर रहा किन्तु यह बात सुनना भी हमारे आचार के विपरीत है । अगर तुम्हें सच्चा सुखी बनना है तो हम तुम्हे वह मार्ग बता सकती हैं। सुकुमालिका ने कहा-साध्वीजी ! किस मार्ग से मै सुखी बन सकती हूँ? साध्वी ने कहा-सुकुमालिके ! सुखी बनने का सबसे श्रेष्ठ मार्ग है संयम का पालन और धर्म का आचरण। संयम को विशुद्ध माराधना से जीव के पूर्व संचित पाप कर्म नष्ट होते हैं । कर्मों के क्षय होने से जीव जन्म मरण को व्याधि से मुक्त होता है। सुकुमालिका को साध्वी का यह उपदेश रुचिकर लगा। उसने अपने माता पिता को पूछकर गोपालिका साध्वी के पास दीक्षा ग्रहण
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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