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________________ आगम के अनमोल रत्न झोली में घातक शस्त्र नहीं किन्तु हमारे घर का ही आहार है। साथ ही हमने ऐसे मुनिराजों को कहीं न कहीं अवश्य देखा है। इस प्रकार विचार करते करते उन्हें आतिस्मरण ज्ञान हो गया। उन्होंने अपने पूर्वजन्म को देखा और उनका मन वैराग्य रङ्ग में रॉ गया । वे वृक्ष से नीचे उतरे और मुनिराओं को वन्दन कर उनका उपदेश सुनने लगे । उपदेश सुनकर वालकों ने कहा-"गुरुदेव ! हम आपके पास माता पिता को पूछ कर प्रव्रज्या लेना चाहते हैं। आप थोड़े समय के लिये इषुकार नगर में ही विराजें।" मुनियों ने बालकों को निकट मोक्षवर्ती जान उनकी प्रार्थना स्वीकार करली । मुनियों ने इषुकार नगर की ओर विहार' कर दिया। दोनों वालक पिता के पास आये और प्रव्रज्या की आज्ञा मांगते हुए कहने लगे-- ___ "पिता जी ! यह जीवन भनित्य है। आयु थोड़ी और उसमें विघ्न बहुत हैं इसलिये हमें गृहवास में आनन्द नहीं आता । अतः हमें दीक्षा की अनुमति दीजिये।" "पुत्रो ! वेदविद कहते हैं कि पुत्ररहित मनुष्य की उत्तम गति नहीं होती । अतः तुम वेदों को पढ़कर ब्राह्मणों को भोजन कराकर संसार के भोग-भोगकर तथा अपने पुत्र को गृहभार सौंपने के बाद फिर साधु बन जाना ।" पिताजी ! वेद पढने से वे शरण भूत नहीं होते। ब्राह्मणों को भोजन कराने मात्र से ही आत्मा की सद्गति नहीं होती तथा पुत्र भी शरणभूत नहीं होते । काम भोग क्षण भर के लिये सुख देते हैं, किन्तु वे चिरकाल तक दुःख का कारण बनते हैं। ये काम भोग संसार-वर्धक और मोक्ष के बाधक हैं और अनर्थों की खान हैं। पिता ने कहा "पुत्रों यहाँ स्त्रियों के साथ बहुत धन है, स्वजन तथा कामगुण भी पर्याप्त है। जिसके लिए लोग तप करते हैं, वह सब घर में ही तुम्हारे स्वाधीन है।"
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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