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________________ ४६० आगम के अनमोल रत्न आत्म वैभव के सामने मेरा वैभव तुच्छ है । इन्द्र दशार्णमुनि को वन्दन कर चला गया । दीक्षित बन दशार्णमुनि ने कर्मों का उन्मूलन किया और भमरपद प्राप्त किया । नन्दिषेण मुनि राजगृह नगर के राजा श्रेणिक के पुत्र का नाम नन्दिषेन था। भगवान महावीर का उपदेश सुनकर उसने दीक्षा लेने का निश्चय किया। राजकुमार के इस निश्चय को आनकर एक देव ने नन्दिषेण से कहा"राजकुमार ! तुम्हारे भोगावली कर्म अभी शेष हैं। वे निकाचित हैं । तुम्हें भोगने ही पड़ेगे। तुम्हारा विचार अच्छा है पर उन भोगावली कर्मों की तुम उपेक्षा नहीं कर सकोगे।" राजकुमार नन्दिषेण वैराग्य रंग में रंग चुका था । देवता की इस भविष्यवाणी की उपेक्षा कर उसने भगवान महावीर से प्रव्रज्या ग्रहण करली । राजकुमार नन्दिषेण भव महाव्रती मुनि वन गया । दीक्षित बनने के बाद नन्दिषेण कठोर तप करने लगा कठोर तप के कारण नन्दिषेणमुनि को अनेक लब्धियां प्राप्त होगई । जिनके बल पर वह अनेक चमत्कार पूर्ण कार्य कर सकते थे । ___ एक वार नन्दिषेणमुनि गोचरी के लिये नगर में आया। संयोगवश वह गणिका के घर पहुँच गया। घर में - उसे एक सुन्दर स्त्री मिली । उस स्त्री को देखकर मुनि ने पूछा-क्या मुझे यहाँ आहार "मिल सकता है ? गणिका ने उत्तर दिया-"जिसके पास सम्पत्ति है उसे यहाँ सब कुछ मिल सकता है किन्तु जो दरिद्र है उसे यहाँ “एक तिनका भी नहीं मिल सकता । वेश्या का यह शब्द-बाण भन्दि"षेण के हृदय में चुभ गया। उसकी अहं भावना जागृत हो गई उसके मन में आया कि इसने मुझे अवतक नहीं पहचाना है। यह मेरे तप प्रभाव को नहीं जानती इसीलिये इतनी बकवास कर रही है।" इसे कुछ चमत्कार बताना हो चाहिये । यह सोच, नन्दि
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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