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________________ आगम के अनमोल रत्न ४५९ नगर ऐसा सजा जैसे स्वर्ग का एक खण्ड हो । नगर सज जाने की सूचना मिलने के बाद राजा ने स्नान किया । उत्तम वस्त्र पहने और अलंकारों से अपने शरीर को अलंकृत किया । उसके बाद वह अपने हाथी पर बैठा और पूरे वैभव के साथ भगवान के दर्शन के लिये चल पड़ा । मार्ग में वह सोचने लगा--"मै जिस राजसी ठाठ से भगवान का दर्शन कर रहा हूँ वैसा आजतक किसी ने भी नहीं किया होगा ।" राजा के इस मनोगत भाव को भगवान की वन्दना के लिए आये हुए शक ने अवधिज्ञान द्वारा जानकर विचार किया "राजा के मन में भगवान के प्रति अपूर्व भक्ति और श्रद्धा है किन्तु इसे अपने वैभव का अभिमान है। उसके अभिमान को चूर करना चाहिये।" इस भाव से इन्द्र ने वैक्रिय शक्ति से चौंसठ हजार हाथी बनाये । प्रत्येक हाथी के पांच सौ वारह मुख, एक एक मुख में आठ आठ दांत, एक एक दाँत में आठ आठ मनोहर पुष्कर एवं लाख पत्तेवाले आठ आठ क्मल इन्द्र ने विकुर्वित किये । प्रत्येक पत्ते में बत्तीस प्रकार के नाटक को करने वाले देवनटों को एवं कमल की प्रत्येक कर्णिका में चार मुखवाले प्रासाद बनवाये। उन प्रसादों में बैठकर इन्द्र अपनी आठ आठ अग्रमहिषियों के साथ बत्तीस प्रकार के नाटक देखने लगा। इस प्रकार के वैभव को वैक्रिय शक्ति से बनाकर इन्द्र भगवान की सेवा में बैठ गया । इन्द्र की अपूर्व ऋद्धि को देखकर दशार्णभद्र राजा को अपना वैभव तुच्छ लगने लगा। इन्द्र के वैभव के सामने अपना वैभव उसे ऐसा ही लगा जैसे सूर्य के सामने जुगनू लगता हो। राजा को अपनी भूल का भान हुआ । उसने सोचा--देवों को जो वैभव मिला है वह धर्माचरण से ही मिला है अतः मै भी प्रव्रज्या ग्रहण कर आत्म वैभव प्राप्त करूं । उसने भगवान के पास प्रनज्या ग्रहण कर ली । वह भगवान का शिष्य हो गया । दशाणभद्र के दीक्षित होने पर इन्द्र उनके पास आया और वन्दनकर बोला-राजर्षि ! मै हार गया हूँ और आप जीत गये हैं । आपके
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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