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________________ જર आगम के अनमोल रत्न min - भगवान के मुख से ढंढणकुमार मुनि की बात सुनकर कृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और हाथी पर सवार होकर महल की भोर चल पड़े । मार्ग में कृशशरीर एवं शान्त चित्त दंढणमुनि को आहार के लिए भ्रमण करते हुए देखा । उसी समय कृष्ण गजराज से नीचे उतरे और ढंढणमुनि के समीप जाकर वन्दन करने लगे और उनके उच्चतम तप की प्रशंसा करने लगे । ढंढण मुनि को कृष्णवासुदेव को वन्दना करते हुए किसी सेठ ने देख लिया । देखते ही उसने विचार किया जिस महात्मा को ये कृष्णवासुदेव वन्दन कर रहे हैं वह सामान्य साधु नहीं हो सकता। ऐसा विचार कर ही रहा था कि इतने में दंढणमुनि ने उसी सेठ के घर में प्रवेश किया । सेठ ने ढंढणमुनि को वन्दन कर आदर पूर्वक मोदक बहराया। मुनि ने सोचा-आज मेरा अन्तराय कर्म नष्ट हो गया है आज मुझे अपने अभिग्रह के अनुरूप माहार मिल गया है। वे भगवान के पास आये और उन्हें वन्दन कर प्राप्त आहार दिखाकर बोले-भगवन् । मेरा लाभान्तराय कर्म क्षीण हो गया है ? मुझे जो आहार मिला है वह मेरी लब्धि से प्राप्त हुआ है ? भगवान ने उत्तर दिया-ढंढण ! यह भाहार तेरी लब्धि से प्राप्त नहीं हुआ है किन्तु श्रीकृष्ण की लन्धि का है। कृष्ण के वन्दन से प्रभावित होकर ही सेठ ने तुझे मोदक वहराये है। अतः इस आहार लाभ के निमित्त श्री कृष्ण हैं। भगवान के मुख से उक वचन सुनकर ढण्ढणमुनि विचारने लगे। मेरे अब भी अन्तराय कर्म शेष हैं । मुझे अपने अभिग्रह के अनुसार परनिमित्त से प्राप्त आहार करना नहीं कल्पता । अतः इन मोदकों को प्रासुक स्थल पर डाल देना चाहिये । मुनि उसी क्षण खड़े हो गये और भगवान को वन्दन कर आहार डालने के लिये चले । शहरके बाहर आकर प्रामुक भूमि में उस आहार को परठ दिया और अपने पूर्वकृत अन्तराय कर्म पर विचार करने लगे। विचार करते-करते वे शुक्ल ध्यान की उच्चतम स्थिति में पहुँच गयो
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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