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________________ आगम के अनमोल रत्न घटा धीरे धीरे पृथ्वी पर अपना साम्राज्य जमाने लगी। पक्षी आकाश से उतरकर अपने अपने घौसलों में लौट रहे थे। उसी समय सोमिल ब्राह्मण समिधा कुश डाभ आदि हवन की सामग्री को लेकर घर की ओर आ रहा था। उसने गजसुकुमाल मुनि को महाकाल स्मशान में ध्यान करते हुए देखा । मुनि पर दृष्टि पड़ते ही उसे पहचानने में देर नहीं लगी और वह सोचने लगा-"यही वह कुमार है, जिसके लिये मेरी सोमा की याचना की गई थी। यदि इसे मुनि ही बनना था तो इसने मेरी कन्या की जिन्दगी को क्यों वरवाद किया ? अव उस बेचारी का क्या होगा? ऐसा विचारतेविचारते सोमिल के हृदय में प्रतिशोधाग्नि भड़क उठी । क्रोध के आवेश में वह उन्मत्त हो मानवता भूल बैठा । पूर्वजन्म के वैरभाव ने जलती आग में घी का काम किया । उसने चारों ओर देखा कि कहीं कोई माता तो नहीं है। जब उसने एकान्त देखा तो वह तालाब से गीली मिट्टी ले आया और गजसुकुमाल मुनि के मुण्डित मस्तक पर चारों ओर से पाल बाब दो और जलती हुई चिता में से फूले हुए टेसू के समान लाल-लाल खैर की लकड़ी के अगारों को एक फूटे हुए मिट्टी के ठीकरे में भरकर ले आया और गजसुकुमाल के मस्तक पर रख दिया । इस अमानुषिक कृत्य को करके दवे परों से चोर की तरह अपने घर भागा कि कहीं उसे कोई देख न ले। मुनि गजसुकुमाल का मस्तक खिचड़ी की तरह पक रहा था। चमड़ी मज्जा और मास सभी जल रहे थे। भयंकर महादारुण वेदना हो रही थी । आँखे वाहर आगई किन्तु वे अपनी ध्यानमुद्रा में लीन थे। वे अब आत्मा और शरीर की भिन्नता को समझ गये थे। उनके मन में वैर के लिये किंचित् भी स्थान नहीं था। आत्मा की विभाव परिणति से वे तपस्वी स्वभाव परिणति में रम गये । सोमिल को उन्होंने शत्रु नहीं किन्तु अपना सच्चा मित्र सहायक माना । सम २८
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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