SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ आगम के अनमोल रत्न ma सुदर्शन सेठ को शौच धर्म में पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए परिव्राजकों के साथ सौगन्धिका आया और मठ में ठहरा । वहाँ से वह थोड़े परिवाजकों को साथ में ले सुदर्शन के घर पहुँचा। शुक परिव्राजक को अपने घर आता देख वह उनके सम्मान में न खड़ा हुआ न आगे गया और न वन्दना ही की किन्तु जहाँ था वहीं बैठा रहा । शुक परिव्राजक सुदर्शन के पास पहुँचा और बोला-सुदर्शन ! मै जब भी तुम्हारे पास आता था उस समय तुम खड़े होकर मेरा आदर करते थे, सम्मान करते थे, वन्दन नमस्कार कर विविध शंकायें करते थे किन्तु आज मैं तुम्हें अत्यन्त बदला हुआ देखता हूँ। क्या मैं इसका कारण आन सकता हूँ? शुक परिव्राजक के यह कहने पर सुदर्शन अपने स्थान से खड़ा हुआ और शुक को नम्रता पूर्वक बोला-भदन्त ! अरिहन्त अरिष्टनेमि के अन्तेवासी थावच्चा पुत्र अनगार यहाँ आये हैं और यहीं नीलाशोक उद्यान में ठहरे है। उनके पास से मैने विनय मूल धर्म को स्वीकार किया है। शुक्र परिवाजक ने कहा-सुदर्शन हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चा-- पुत्र अनगार के पास चलेगे । उनसे मै प्रश्न करूँगा । अगर उनसे मेरे प्रश्नों का समाधान हुआ तो मै उन्हे वन्दना करूँगा, अगर ऐसा न हुआ तो मैं उन्हें निरुत्तर कर दूंगा। सुदर्शन ने यह बात स्वीकार की और ये दोनों ही थावच्चा पुत्र भनगार के पास पहुंचे। थावच्चा पुत्र अनगार के समीप आ शुक परिवाजक बोला-भर्गवन् ! तुम्हारी यात्रा चल रही है ? यापनीय है ? तुम्हारे भव्यावाध है ? और तुम्हारा प्रासुक विहार हो रहा है ? थावच्चा अनगार ने उत्तर में कहा-हे शुक! मेरी यात्रा भी हो रही है। यापनीय भी वर्त रहा है । अव्यावाध भी है और प्रासुक विहार भी हो रहा है।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy