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________________ ४०४ आगम के अनमोल रत्न लगे-अरे यह क्या ? इतना विष इस आहार में, जिसको कि मैं यहाँ फेकना चाहता हूँ । इस आहार से इतनी हिसा! लाखों जीवों का नाश ! आहार की एक बूंद से इतने जीवों के प्राण पखेरू उड़ गये तो इस सम्पूर्ण आहार से कितने प्राणियों का नाश हो जायगा ! नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता । मै केवल अपनी रक्षा के लिये इतने जीवों की हिंसा का निमित्त नहीं बनूंगा। फिर विचार माया-मगर गुरुदेव का आदेश है कि इसे निरबद्य भूमि में डाल दिया जाय ! न डालने से आज्ञा भंग का दोष होगा। मगर अन्तः करण की करुणा की लहरों ने तत्काल समाधान कर दिया-गुरुदेव ने निरवद्य स्थान में डालने का भादेश दिया है । वह निरवद्य स्थान मेरे उदर के सिवाय और क्या हो सकता है ? __ बस, दयाधन मुनि ने जीव-जन्तुओं की अनुकंपा के निमित्त रस विषैले तुम्वे के शाक को अपने उदर में डालने का निश्चय कर लिया। इसके लिए पहले उन्होंने मुख वस्त्रिका की प्रतिलेखना कर मस्तक सहित ऊपर के भाग का भी प्रतिलेखन किया। उसके बाद जिस तरह सर्प बिल में प्रवेश कर जाता है मुनिने भी अनासक्त भाव से उस आहार को अपने पेट में उंडेल दिया। जीवों की रक्षा भी होगई और गुरुदेव के आदेश का भी पालन हो गया । विषैले शाक से तत्काल मुनि के शरीर पर असर होने लगा। उठने वैरने की शक्ति भी क्षीण होने लगी। अपनी मृत्यु का समय नजदीक जानकर उन्होंने आचार के भाण्ड-पात्र एक जगह रख दिये। स्थंडिल का प्रतिलेखन किया । दर्भ-घास का विछौना विछाया और उस पर आसीन होगये। पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यंक आसन से बैठकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्तन करके अंजलि बद्ध हो इस प्रकार कहने लगे "अरिहंतों यावत् सिद्धगति को प्राप्त भगवंतों को नमस्कार हो । पहले भी मैं ने धर्मघोष स्थविर के पास सम्पूर्ण प्राणातिपात से परि
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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