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________________ आगम के अनमोल रत्न ४०३ मुनि ने सोचा- इस बहिन के मन में भक्ति भाव की उग्रता है। उन्हें क्या पता था कि मैं इसके लिये उकरड़ा बन रहा हूँ। आहार पर्याप्त समझ कर मुनि अपने स्थान की ओर चले । नागश्री जानती थी कि कडवा तुम्बा प्राणघातक विष बन गया है। फिर भी अपनी भूल को छिपाने के लिये उसने महान तपस्वी के प्राणों की परवाह नहीं की। उन्हें विष बहरा दिया। अपनी झूठी मान प्रतिष्ठा की खातिर नागश्री ने महामुान के जीवन का अन्त करने का साहस कर लिया । उसने सोचा-रद्दी चीजें डालने के लिये दूसरों को उकरड़े पर जाना पड़ता है। मैं भाग्यशालिनी हूँ कि उकरड़ा मेरे घर मा गया । इन्हीं अधम विचारों के कारण नागश्री ने घोर नरकायु का वध कर लिया । ___ आहार लेकर धर्मरुचि अनगार अपने गुरुदेव धर्मघोष स्थविर के पास आये । स्थविर को वन्दन किया और लाया हुआ आहार दिखलाया । शाक को देखते ही उसकी गन्ध से उसकी कटुता का आभास उन्हें मिल गया । अब उसे चखा तो वह अत्यन्त कुडुवा और विषैला लगा। धर्म घोष स्थविर ने कहा-मुने ! इस आहार के सेवन से तुम्हारी अकाल में ही मृत्यु हो जावेगी । अत. इसे एकान्त में जीव रहित स्थान में ढाल आवो और दूसरा एषणीय आहार लाकर पारणा करो। गुरुदेव का आदेश पाकर धरुचि अनगार तुम्बे के शाक को एकान्त और जीवरहित स्थान में डालने के लिये चले । उचान से कुछ दूरी पर वे पहुँचे । वहाँ जीवरहित स्थल को देखकर शाक की एक बूंद डाल दी। उन्होंने परखना चाहा कि इसकी गन्ध से कोई जीव जन्तु तो नहीं आते ? मुनि जी की कल्पना ठीक निकली। शाक की गन्ध से हजारों चीटियाँ वहाँ आ गई। उनमें से जिस चीटी ने वह शाक ताया तत्काल वह मर नई । चीटियों को मरते देख धर्मरुचि अनगार का हृदय अनुकम्पा से भर गया । वह सोचने
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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