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________________ ३६० आगम के अनमोल रत्न कि भूत समुदाय से चेतन पदार्थ उत्पन्न होता है और उसी में लीन हो जाता है, पर लोक की कोई संज्ञा नहीं । भूत समुदाय से ही विज्ञानमय आत्मा की उत्पत्ति का अर्थ तो यही है कि भूत समुदाय के अतिरिक्त पुरुष का अस्तित्व ही नहीं।" भगवान महावीर--"और यह भी तो तुम जानते हो कि वेद से पुरुष का अस्तित्व भी सिद्ध होता है ?" इन्द्रभूति-"जी हाँ 'स वै अयमात्मा ज्ञानमयः' इत्यादि श्रुतिवाक्य आत्मा का अस्तित्व भी बता रहे हैं । इनसे शंका होना स्वाभाविक ही है कि "विज्ञानधन' इत्यादि श्रुतिवाक्य को प्रमाण मान कर भूतशक्ति को ही भात्मा माना जाए अथवा आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व माना जाए । ____भगवान महावीर-"हे इन्द्रभूति ! 'विज्ञानघन' इत्यादि पदों का जैसा तुम अर्थ समझ रहे हो वास्तव में वैसा नहीं है । अगर इस श्रुति वाक्य का वास्तविक अर्थ समझ लिया होता तो तुम्हें कोई शंका ही नहीं होती। इन्द्रभूति-"भगवन् । क्या इसका वास्तविक अर्थ कुछ और है।" भगवान महावीर- हाँ ! 'विज्ञानधन' इस श्रुति का वास्तविक अर्थ तुम 'पृथिव्यादि भूत समुदाय से उत्पन्न 'चेतनापिण्ड' ऐसा करते हो पर वस्तुतः 'विज्ञानधन' का तात्पर्य विविधज्ञान पर्यायों से है । आत्मा में प्रतिक्षण नवीन ज्ञानपर्यायों का भविर्भाव तथा पूर्वकालीन ज्ञान पर्यायों का तिरोभाव होता रहता है । जब एक पुरुष घट को देखता है और उसका चिन्तन करता है तो उस समय उसकी आत्मा में घट विषयक ज्ञानोपयोग उत्पन्न होता है जिसे हम घट विषयक ज्ञान पर्याय कहते हैं । जब वहीं पुरुष घट के पश्चात् पटादि अन्य पदार्थों को देखेगा तव उसे पटादि का ज्ञान होगा और पूर्वकालीन घट ज्ञान तिरोहित (व्यवहित) हो जायगा । अन्यान्य पदार्थ विषयक ज्ञान के
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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