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________________ ३१६ आगम के अनमोल रत्न के लिये आए, किन्तु तुम नहीं भाए । क्या तुम उनसे श्रेष्ठ हो ? तुम्हें बहुत घमण्ड है । आचार्य ने उत्तर दिया "राजन् ! हमारे न आनेका कारण अभिमान या आपके प्रति द्वेष नहीं है । सांसारिक सम्बन्धों का त्याग होने के कारण जैन मुनियों का ऐसा भाचार ही है । सांसारिक लाभ या हानि में वे उपेक्षा भाव रखते हैं । लोकाचार के विरुद्ध भी हमने कोई कार्य नहीं किया । राजनियमों का उल्लंघन करना हमारा आचार नहीं है । आपके राज्य में हम पवित्र संयमी जीवन का पालन कर रहे हैं । ऐसी अवस्था में हमें निकल जाने को आज्ञा देना ठीक नहीं है । फिर भी यदि आप ऐसा ही चाहते हैं तो चातुर्मास के बाद विहार कर देंगे । चातुर्मास में एक स्थान पर रहना जैन मुनियों का आचार है । नमुचि ने क्रोध में आकर कहा - अधिक बातें बनाना व्यर्थ है । यदि जीवित रहना चाहते हो तो सात दिन के अन्दर अन्दर मेरे राज्य को छोड़कर चले जाओ। इसके बाद अगर किसी को यहाँ देखा तो सब को घानी में पिलवा दिया जायेगा । नमुचिका इस प्रकार निश्चय जानकर मुनि अपने स्थान पर चले गये । सभी इकट्ठे होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये । एक साधुने कहा- "विष्णुकुमार मुनि के कहने से यह शान्त हो जायगा ऐसी आशा है । इसलिये शीघ्र ही किसी मुनि को उनके पास भेजना चाहिये । आचार्य ने पूछाऐसा कौनसा मुनि है जो शघ्र से शीघ्र वहाँ जा सके । एक मुनि ने उत्तर दिया, "मै वहाँ जा सकता हूँ किन्तु वापिस नहीं आसकेता ।” आचार्य ने कहा "तुम चछे जाओ । वापिस विष्णुकुमार स्वयं ले भायेंगे । मुनि उड़कर मेरु पर्वत पर पहुँचा जहाँ विष्णुकुमार मुनि तास्या कर रहे थे । सारा वृत्तान्त उन्हें कहा । उसी समय विष्णुकुमार मुनि अपनी लब्धि के बल से दूसरे मुनि को लेकर हस्तिनापुर पहुँच गये। आचार्य को वन्दना करने के बाद वे एक साधु को साथ में लेकर नमुचि के पास गये । नमुचि को छोड़कर सभी राजा महाराजाओं ने उन्हें वन्दना
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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