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________________ २१४ आगम के अनमोल रत्न वह उस वस्त्र को उठाकर ले गया । उस आधे देवदूष्य को लेकर वह स्फूगर के पास गया ।। रफूगर से उसे अखण्ड बनवाकर वह उसको बेचने के लिये राजा नन्दिवर्द्धन के पास ले गया । नन्दिवर्द्धन ने उसे देखकर पूछा-यह देवदूष्य आपको कहाँ मिला है ? उस ब्राह्मण ने सारी कहानी सुनाई । इससे हर्षित हो राजा नन्दिवर्धन ने एक लाख दीनार देकर उसे खरीद लिया । उत्तरवाचाला जाने के लिये दो मार्ग थे। एक कनकखल आश्रमपद के भीतर होकर जाता था और दूसरा आश्रम के बाहर होकर आता था । भीतर वाला मार्ग सीधा होने पर भी भयकर और उजड़ा हुआ था और बाहर का मार्ग लम्बा और टेढ़ा होनेपर भी निर्भय था । भगवान महावीर ने भीतर के मार्ग से प्रयाण कर दिया । मार्ग में उन्हें ग्वाले मिले। उन्होंने भगवान से कहा-देवार्य ! यह मार्ग ठीक नहीं है। रास्ते में एक भयानक दृष्टिविष सर्प रहता है जो राहगीरों को जलाकर भस्म कर देता है। अच्छा हो आप वापस लौटकर बाहर के मार्ग से जायें। । भगवान महावीर ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। वे चलते हुए सर्प के बिल के पास यक्ष के देवालय में जाकर ध्यानारूढ़ हो गये। सारे दिन आश्रमपद में घूमकर सर्प जब अपने स्थान पर लौटा तो उसकी दृष्टि ध्यान में खड़े भगवान पर पड़ी। वह भगवान को देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । उसने अपनी विषमय दृष्टि भगवान पर डाली । साधारण प्राणी तो उस सर्प के एक ही दृष्टिपात से जलकर भस्म हो जाता था किन्तु भगवान पर उस सर्प की विषमयी दृष्टि का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । दूसरी-तीसरी बार भी उसने भगवान पर विषमय दृष्टि फेंकी किन्तु भगवान पर उसका कुछ भी असर नहीं, पड़ा । .. तीन बार विषमय एवं भयंकर दृष्टि डालने पर भी जब भगवान को, अचल देखा तो वह भगवान पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और भगवान
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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