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________________ तीर्थकर चरित्र ११७ (२०) प्रवचन प्रभावना-अभिमान छोड़, ज्ञानादि मोक्ष मार्ग को जीवन में उतारना और दूसरों को उसका उपदेश देकर उसका प्रभाव बढ़ाने से तीर्थदर नामकर्म का बन्ध होता है। तात्पर्य यह है कि इन बीस कारणों से महावल मुनि ने तीर्थदूर नामकर्म का उपार्जन किया। इसके बाद महाबल आदि सातों अनगारों ने बारह प्रकार की भिक्षु प्रतिमाएँ धारण की जिसमें पहली भिक्षु प्रतिमा एक मास की, दूसरी दो मास की, तीसरी तीन मास की, चोथी चार मास की, पांचवी पांच मास की, छठी छह मास की, सातवीं सात मास की, आठवीं सात अहोरात्र की, नौवीं सात अहोरात्र की, दसवीं सात अहोरात्र की ग्यारहवीं एक अहोरात्र की एवं वारहवों एक रात्रि की थी । भिक्षु-प्रतिमाओं का सम्यक् रूप से माराधन कर, इन सातों मुनियों ने क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीड़ित' तप प्रारम्भ कर दिया सिंह की क्रीड़ा के समान तप सिंहनिष्क्रीड़ित कहलाता है । जैसे सिंह चलता-चलता पीछे देखता है, इसी प्रकार जिस तप में पीछे के तप की आवृत्ति करके भागे का तप किया जाता है और इसी क्रम से आगे बढ़ा जाता है, वह 'सिंहनिष्क्रीड़ित' उप कहलाता है। ] इस तप में मुनिवरों ने प्रथम एक उपवास कर "सर्वकाम गुणित, (विगय आदि सभी पदार्थों का ग्रहण करना) पारणा किया। इसी प्रकार दो उपवास और करके पारण किया। शेष क्रम इस प्रकार है१/२.३/३/81111...I । । इस प्रकार इस क्षुल्लक 'सिंहनिष्क्रीडित' तप की पहली परिपाटी छह मास और सात अहोरात्रि में कुल १५४ उपवास और तेतीस पारणे के साथ पूर्ण की । इसके बाद मुनिवरों ने द्वितीय परिपाटी प्रारम्भ कर दो। इसकी विधि प्रथम परिपाटी की ही तरह है। विषेशता
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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