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________________ (६३) ग्रन्थकर्ताको इस वातकी कुछ परवा नहीं है। वे अपने इस दोषको ही गुण समझते हैं। वे कहते हैं: धर्मानुवन्धिनी या स्यात्कविता सैव शस्यते । शेपा पापासवायैव सुप्रयुक्तापि जायते ॥ ६३ ॥ परे तुष्यन्तु वा मा वा कविः स्वार्थ प्रतीहताम् । न पराराधनाच्छ्रेयः श्रेयः सन्मार्गदेशनात् ॥ ७६ ॥ (प्रथमपर्व) अर्थात् जो कविता धर्मसम्बन्धी है, उसीकी प्रशंसा की जाती है। पर जो धर्मसम्बन्धी नहीं है, वह चाहे जैसी अच्छी बनी हो, पापका आस्रव करनेवाली ही होगी। दूसरे लोग चाहे प्रसन्न हों, चाहे न हों, कविको अपना स्वार्थ ( आत्महित ) देखना चाहिये । क्योंकि दूसरोंकी आराधना करनेसे-वा उन्हें रानी रखनेसे कल्याण नहीं होता है । कल्याण होता है, सच्चे धर्मका रपदेश देनेसे। अभिप्राय यह कि, कविको धर्मोपदेशमय कविता करनी चाहिये । इस वातकी परवा नहीं करना चाहिये कि, इससे कोई प्रसन्न होगा या नहीं। और सब कोई प्रसन्न हो भी तो नहीं सकते हैं। क्योंकि लोगोंकी रुचि ही मिन्न २ होती है। किसीको शब्दसौन्दर्य प्रिय है, कोई भावसौष्टवको पसन्द करता है, किसीको बड़े २ समास अच्छे लगते हैं, कोई छोटे २ सरल पदोंसे प्रसन्न होता है, किसीको श्लेपादि अलंकारोंसे ढकी हुई कविता प्यारी लगती है। किसीका मन उसके प्राकृतिक स्पष्ट रूपपर मोहित होता है और कोई इन गुणोंसे भिन्न जुदी ही वातोंके प्रेमी हैं । फिर सबके प्रसन्न करनेकी इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है ? . . .
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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