SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २६ ) वर्द्धमानपुराणोद्यदादित्योक्तिगभस्तयः । प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभित्तिषु ॥ ४१ ॥ अर्थात्-जिन्होंने परलोकको जीत लिया है और जो कवियों के चक्रवर्ती हैं, उन वीरसेनगुरुकी कलंकरहित कीर्ति प्रकाशित हो रही है । जिनसेनस्वामीने पार्श्वनाथ भगवान के गुणोंकी जो अपार स्तुति बनाई है, वह उनकी कीर्तिका भली भांति संकीर्तन कर रही है तथा उनके अभ्युदयका कारण हुई है । और उनके रचे हुए वर्द्धमानपुराणरूपी उगते हुए सूर्यकी उक्तिरूपी किरणें विद्वान् पुरुषोंकी अन्तःकरणरूपी स्फटिक भूमिमें स्फुरायमान हो रही हैं । I इन श्लोकोंसे यह मालूम होता है कि हरिवंशपुराणकी रचना होनेके समय आदिपुराणके कर्त्ता जिनसेनका अस्तित्व था और उस समय वे पार्श्वजिनेन्द्रस्तुति तथा वर्द्धमानपुराण नामके दो ऐसे ग्रन्थ वना चुके थे, जिन्होंने विद्वानोंके हृदयमें स्थान पा लिया था । इसके सिवाय उनके नामके साथ जो 'स्वामी' पद दिया है, उससे जान पड़ता है कि, वे उस समय एक आदरणीय मुनि समझे जाते थे। इन तीन वातोंसे पाठक सोच सकते हैं कि, हरिवंशपुरा - णकी रचनाके समय उनकी अवस्था बहुत ही कम होगी, तो २५ वर्षकी होगी । विना इतनी अवस्थाके इतना पांडित्य, गौरव तथा स्वामी पदका पाना संभव नहीं हो सकता है । और हरिवंशकी १. तत्वार्थ सूत्रव्याख्याता स्वामीति परिपठ्यते । ( नीतिसार ) अर्थात् तत्वार्थसूत्रपर व्याख्यान ( टीका ) बनानेवाला अथवा उसका व्याख्यान करनेवाला 'स्वामी' कहलाता है ।
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy