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________________ (१३) उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्य जिनसेनस्वामीकी प्रशंसा , कर चुकनेके पश्चात् कहते हैं: दशरथगरुरासीत्तस्य धीमान्सधर्मा शशिन इव दिनेशो विश्वलोकैकचक्षुः । निखिलमिदमदीपन्यापि तद्वामयूखैः __ प्रकटितनिजभावं निर्मलैर्धर्मसारैः ।। ११ ॥ सद्भावः सर्वशास्त्राणां तद्भास्वद्वाक्यविस्तरे। दर्पणार्पितविम्वाभो वालेरप्याशु बुध्यते ॥१२॥ प्रत्यक्षीकृतलक्ष्यलक्षणविधिविद्योपविद्यान्तगः सिद्धान्ताव्यवसानयानजनितप्रागल्भ्यद्धेद्धधी । नानानूननयप्रमाणनिपुणोऽगण्यर्गुणैभूपितः शिष्यः श्रीगुणभद्रसरिरनयोरासीजगद्विश्रुतः॥ भावार्थ-जिस तरह चन्द्रमाका सधर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकारसे उन जिनसेनस्वामीके सधर्मा ( एक गुरुके शिप्य) दशरथगुरु नामके आचार्य हुए, जो कि संसारको दिखलानेवाले अद्वितीय नेत्र हैं और जिनकी निर्मल धर्मको कहनेवाली वचनरूपी किरणों से यह अन्धकारन्याप्त संसार अपने यथार्थ भावको प्रकट करता है अर्थात् जिनकी वाणीसे संसारका स्वरूप जान पड़ता है। उनके प्रकाशमान वाक्योंमें सारे शास्त्रोंका भाव दर्पणमें पड़े हुए प्रतिविम्बके समान मूर्ख पुरुषोंको भी शीघ्र ही भास जाता है। इन दोनोंका अर्थात् जि. नसेन और दशरथगुरुका जगत्प्रसिद्ध शिष्य गुणभद्रसरि हुआ, जिसे सारा व्याकरणशास्त्र प्रत्यक्ष हो रहा है, सिद्धान्तसागरके पार
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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