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________________ (१६५) निकलकर स्वामीने राजासे कहा कि, " सदाशिवकी मूर्तिको अच्छी तरहसे चौवीस जंजीरोंसे बांध दो, नहीं तो इसके टुकड़े २ हो जावेंगे!" जब राजा शिवलिंगको जंजीरोंसे अच्छी तरहसे कसवा चुका, तव स्वामीने फिर कहा कि राजन्, नमस्कार करनेके लिये तू व्यर्थ ही आग्रह कर रहा है। परन्तु खैर, जव तू नमस्कार किये विना मुझे छोड़ता ही नहीं है, तो सावधान हो जा; मेरा नमस्कार देख, ऐसा कहकर स्वामिसमन्तभद्र अपनी प्रभावशालिनी वाणीसे भक्तिगद्गद होकर चौवीस तीथकरोंकी स्तुति करने लगे। यह स्तुति वे उसी समय रचते जाते थे, और पढ़ते जाते थे। जिस समय वे पहले सात तीर्थंकरोंकी स्तुति 'करके आठवें चन्द्रप्रभ तीर्थकरकी स्तुतिका चन्द्रमभं चन्द्रमरीचिगौरं चन्द्रद्वितीयं जगदेककान्तम् । वन्देशभिवन्धं महतामृषीन्द्र जिनं जितस्वान्तकषायवन्धम् ।। यह श्लोक पढ़कर-- यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्न आगेके श्लोकका यह चरण पढ़ने लगे; त्यों ही शिवलिंगके सब जंजीर आप ही आप टूट गये; और पिंडी फटकर उसमेंसे जिनेश्वरकी चतुर्मुख प्रतिमा प्रगट हो गई । यह देखते ही स्वामीने उसे साष्टांग नमस्कार किया और इस अव आविष्कारसे राजादिक १. वाक्यं यावत्पठेदेवं स योगी निर्भरा महान् । तावत्तल्लिंगकं शीघ्र स्फुटितं चेततस्तराम् ॥ निर्गता श्रीजिनेन्द्रस्य प्रतिमा सच्चतुर्मुखा । संजातस्सर्वतस्तत्र जयकोलाहलो महान् ॥
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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