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________________ (१५८) मत रहो, स्त्रियोंसे सम्बन्ध मत रक्खो; परिग्रह धनादिकी आकांक्षा । मत करो, भिक्षामें नो लूखा सूखा भोजन मिले, उससे संतोषपूर्वक पेट भर लो और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके अपने यति नामको सार्थक करो । इस छोटेसे ग्रन्थके पाठ करनेसे अनुमान होता है कि श्रीमल्लिषणाचार्यको अपने समयके मुनियोंको शिथिलाचारमें प्रवृत्त देखकर बड़ी चोट लगी थी। उनके हृदयकी वह चोट सज्जनचित्तवल्लभके कई श्लोकोंसे स्पस्ट व्यक्त होती है । इसमें सन्देह नहीं कि वे बड़े दृढव्रती और विरक्त मुनि. होंगे; परन्तु उस समयके सब ही. मुनि ऐसे नहीं होंगे। उनमें अवश्य ही शिथिलाचारकी प्रवृत्ति होने लगी होगी। भट्टारकोंकी उत्पत्ति भले ही वहुत पीछे हुई हो परन्तु उनका बीज उनसे कई सौ वर्ष पहिले हमारे मुनिसमानमें पड़ चुका होगा। दूसरे मल्लिषेण आचार्य जिनकी कि 'मलधारिन्। पदवी थी और जिनका उल्लेख इस लेखके प्रारंभमें किया गया है, शक संवत् १०५० की फाल्गुन कृष्ण तृतीयाको श्वेतसरोवरमें (श्रवणबेलगुलमें) समाधिस्थ हुए थे ऐसा मल्लिपेणप्रशस्तिसे मालूम पड़ता है जो कि 'इन्स्क्रिप्शन्स एट् श्रवणबेलगोला' नामक अंग्रेजी पुस्तकमें प्रकाशित हो चुकी है। वे अजितसेन नामक आचार्यके शिष्य थे और बड़े भारी विद्वान् योगी और जितेन्द्रिय थे। १ यह बड़ी भारी प्रशस्ति श्रवणबेलगोलाके पार्श्वनाथवस्ती नामके मन्दिरमें .. कई शिलाओंपर उकीरी हुई अव भी मौजूद है।
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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