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________________ प्रवचनसार [७५ १ (१३) गाथा-८१ चिंतामणि प्राप्त किया किन्तु है प्रमाद-जो चोर है-इसप्रकार विचार कर विशेष जागृत रहता है। माधवी। है जिस जीवके अंतर तिहुरंतर, दूर भया यह मोह मलाना । ई निज आतमतत्व जथारथकी, तिनके भई प्रापति वृन्द निधाना ॥ बदि जो वह रागरु दोष प्रमाद, कुमावहुको तजि देत सयाना । सदि सो वह शुद्ध निजातमको, निहचै करि पावत है परधाना ।। दोहा। यात मोह निवारिके, पायौ करि बहु जल । आतमरूप अमोल निधि, जो चिन्तामणि रत्न ।। २९ ।। ताके अनुभवसिद्धके, बाधक रागरु दोष । इनहूँको जब परिहर, तब अनुभवमुख पोष ॥ ३०॥ नाहीं तो ये चोर ठग, लटें अनुभव रत्न । फिर पीछे पछिताय है, तातें करु यह जन ॥ ३१॥ सावधान वरतौ सदा, आतम अनुभवमाहिं । राग-द्वेपको परिहरो, नहिं तो ठग ठगि जाहिं ॥ ३२ ।। (१४) गाथा-८२ यह एक उपाय है जोकि भगवन्तोंने __ स्वयं अनुभव करके दर्शाया वही मोक्षका सत्यार्थ पंथ है। मनहरण । ताही सुविधान करि तीरथेश अरहंत, ___ सर्व कर्म शत्रुनिको मूलते विदारी है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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