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________________ ५४ ] कविवर वृन्दावन विरचित (४९) एकको नहीं जानता वह सभीको भी नहीं जान सकता। मत्तगयन्द। है जो यह एक चिदातम द्रव्य, अनन्त धरै गुनपर्यय सारो । है ताकहँ जो नहिं जानतु है, परतच्छपने सरवंग सुधारो । है सो तब क्यों करिके सब द्रव्य, अनंत अनंत दशाजुत न्यारो । १ एकहि कालमें जानि सकै यह, ज्ञानकी रीतिको क्यों न विचारो ॥२२१॥ मनहरण । घातिकर्म घातके प्रगट्यो ज्ञान छायक सो, दर्वदिष्टि देखते अमेद सरवंग है । ज्ञेयनिके जानिवतें सोई है अनंत रूप, ऐसे एक औ अनेक ज्ञानकी तरंग है ॥ तातें एक आतमाके जानेहीतें वृन्दावन, ___ सर्व दर्व जाने जात ऐसोई प्रसंग है। केवलीके ज्ञानकी अपेच्छाते कथन यह, मथन करी है कुन्दकुन्दजी अभंग है ॥ २२२ ॥ (५०) क्रमिक ज्ञानमें सर्वज्ञताका अभाव अरिल्ल । जो ज्ञाताको ज्ञान अनुक्रमको गंही, वस्तुनिको अवलंबत उपजत है सही । सो नहिं नित्य न छायक नहिं सरवज्ञ है, पराधीन तमु ज्ञान सो जन अलपज्ञ है ।। २२३ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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