SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [५३ छायकीय ज्ञान है यही त्रिलोकवंद वृन्द, जो समौ विषम्यमें समान भासवंत है ॥२१८ ।। (समविषमकथन )-मनहरण । कोऊ द्रव्य काइके समान न विराजत है, याहीत विषम सो वखानै गुरु ग्रंथमें । मति श्रुति औघ मनपर्जके विषय तेऊ, विषम कहावत छयोपशम पंथमें ॥ सर्व कर्म सर्वथा विनाशिके प्रतच्छ स्वच्छ, छायक ही ज्ञान सिद्ध भयौ श्रुति मंथमें । सोई सर्व दर्वको विलोकै एकै समैमाहि, महिमा न जासकी समात 'ग्रंथकथमें ।२१९ ॥ (४८) जो सभीको नहीं जानता वह एकको भी नहिं जानता। मनहरण । तीनोंले.कमाहिं जे पदारथ विराज तिहूँ, कालके अनंतानंत जासुमें विमेद है। तिनको प्रतच्छ एक समैहीमें एक बार, जो न जानि सके स्वच्छ अंतर उछेद है। सो न एक दर्वहूको सर्व परजायजुत, जानिवेकी शक्ति धेरै ऐसे भने वेद है। ताः ज्ञान छायककी शक्ति व्यक्त वृन्दावन, सोई लखै आप-पर सर्वभेद छेद है ॥ २२० ॥ १. अवधिज्ञान । २. ग्रंथरूपी कथामें-वस्त्रमें ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy