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________________ प्रवचनसार [ १७९ पीछे शुभ परनतिविपैं, रतनत्रय विवहार । पंचाचार गहन करै, सो जतिमति अनुसार ॥ ३१ ॥ चापाई। है अहो आठविधि ज्ञानाचार | कालाध्ययन विनय हितकार ॥ उपाधान बहुमान विधान । और अनिहव मेद प्रमान ॥३२॥ है अरथ तथा विजन उर आन । तदुभय सहित आठ इमि जान ॥ है मैं निहचै तोहि जानों सही । शुद्धातम सुभाव तू नहीं ॥३३॥ हैं पै तथापि तवलों तोहि गहों। जबलों शुद्धातम निज लहों ॥ तुवप्रसाद सीझै मम काज । यो कहि विनय गहै गुन साज ॥३४॥ हैं अथ दर्शनाचार धारण विधि । अहो आठ दरशनआचारा । निःशंकित निकांछित धारा ॥ निरविचिकित्सा निरमूढ़ता। उपगृहन 'थिति वाच्छल्लता।३५/ है मैं निहचै तोहि जानों सही । शुद्धातम सुभाव तू नही । है पै तथापि तवलों तोहि गहों । जबलों शुद्धातम निज लहों ॥३६॥ तुवप्रसाद सीझै मम काज । यों करि विनय गहै गुन साज ॥ समदिष्टी भविजीव प्रवीन । हिये विवेकदशा अमलीन ॥३७॥ अथ चारित्राचार धारण विधि । है अहो मुकतिमगसाधनहार । तेरहविधि चारित्राचार || पांच महाव्रत गुपति सु तीन । पांचों समिति मेद अमलीन ॥३८॥ है मैं निहच तोहि जानों सही। शुद्धातम सुभाव तू नही ॥ है पै तथापि तबलों तोहि गहों । जब लों-शुद्धातम निज लहों ॥३९ । १ १. स्थितिकरण । २. वात्सल्य ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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