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________________ १७० ] फविवर वृन्दावन विरचित ज्ञेयनिके सत्तामें अनंत गुन-पर्ज शक्ति, ताहूको प्रमानकरि आगे विसनर है ॥ असंदेहरूप आप ज्ञाता सिरताज बन्द, संशय विमोह सब विभ्रमको हरे है। एसो जो श्रमण सरवज्ञ वीतराग सो, बतावो अब कौन हेत काको ध्यान कर है ॥१२५॥ मोह उदै अथवा अज्ञानतासों जीवनिके, सकल पदारथ प्रतच्छ नाहि दरसे । यात चित चाहकी निवाह हेत ध्यान करे, अथवा संदेहके निवारिवेको तरसै ॥ सो तो सरवज्ञ वीतरागजूके मूल नहि, घातिविधि घातें ज्ञानानंद सुधा वरसै । इच्छा आवरन अभिलाष न संदेह तव, कौन हेत ताको ध्यावै ऐसो संशै परसै ॥१२६॥ ज्ञानावरनादि सर्व वाधासों विमुक्त होय, ___ पायो है अबाध निज आतम धरम है । ज्ञान और सुख सरवंग सब आतमाके, जासों परिपूरित सो राजे अभरम है ॥ इन्द्रीसों रहित उतकिष्ट अतिइन्द्री सुख, ताहीको एकाग्ररूप ध्यावत परम है। ये ही उपचारकरि केवलीके ध्यान कह्यौ, ___ मेदज्ञानी जानै यह भेदको मरम है ॥१२७॥ १. घातियाकर्म।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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