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________________ प्रवचनसार [१६९ ResTERSarszzars.szess.orSTRExax. ऐसे कुन्दकुन्दजी बखानी ध्यान ध्याता वृन्द, सोई सरधानै जाकी मिथ्यामति चुरी है ॥११७|| प्रश्न-दोहा जो मन चपल पताकपट, पवन दीपसम ख्यात । सो मन कसे होय थिर, उत्तर दीजे भात ॥११८॥ उत्तरपांचों इन्द्रिनके जिते, विषय भोग जगमाहिं । तिनहीसों मन रातदिन, ममतो सदा रहाहि ॥११९॥ मोह घटे वैशगता, होत तजे सब भोग । निज सुभाव मुखमाहिं तब, लीन होय उपयोग ॥१२०॥ तहां सुमनको संचके, एक निजातम भाव । तामधि आनि झुकाइये, मेदज्ञानपरमाव ॥१२११ तहां सो मनकी यह दशा, होत औरसे और । जैसे काग-जहाजको, सूझै और न ठौर ॥१२२॥ जो कहुँ इत उतको लखै, तौ न कई विसराम । तब हि होय एकाग्र मन, ध्यावे आतमराम ||१२३॥ ऐसे आतमध्यानतें, मिल अतिन्द्री शर्म । शुद्ध बुद्ध चिद्रूपमय, सहज अनाकुल धर्म ॥१२४॥ (५२) गाथा-१९७ सर्वज्ञ भगवान क्या ध्याने है ? मनहरण । घातिकर्म घाति भलीभांत जो प्रतच्छ सर्व, ___ वस्तुको सरूप निज ज्ञानमाहिं धरै है । १. पताका-निशानका वस्त्र । -
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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