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________________ १६६ ] फविवर वृन्दावन विरचित (४६) गाथा-१९१ शुद्धनयसे ही शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है। मनहरण । में जो शुद्ध बुद्ध चिनमूरत दरव सो तो, परदर्वनिको न भयो हो काहू कालमें । देहादिक परदर्व मेरे ये कदापि नाहिं, ये तो निजसत्ताहीमें रहे सब हालमें । मैं तो एक ज्ञानपिंड' अखंड परमजोत, निर्विकल्प चिदाकार चिदानंद चालमें । ऐसें ध्यानमाहिं जो सुध्यावत स्वरूप वृन्द, सोई होत आतमाको ध्याता वर भालमें ॥१०७॥ दोहा । शुद्ध दरवनयको गहै, निहचैरूप अराध । शुद्ध चिदातम सो लहै, मैट कर्म उपाध ॥१०८॥ (४७) गाथा-१९२ ध्रु वत्व के कारण शुद्धात्मा ही प्राप्त करने योग्य है। मनहरण । हूं जो हो विशुद्ध भेदज्ञान नैनधारी सो, निजातमा दरव ताहि ऐसे करि जानौ हौं । सहज सुभाव निज सत्ताहीमें ध्रौव सदा, ज्ञानके सरूप दरसनमई मानौ हौं ॥ परभाव तजे तातें शुद्ध औ अतिंद्री सर्व, । पदारथ जानेंतें महारथ प्रमानौ हौं ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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