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________________ प्रवचनसार [ १६५ यही अपेच्छा यहां, कथनका जोग बना है । औ पुनि निह, बंध, नियत नय गहन भना है ॥ ताको मुहेत अब कहत हौं, सुनो गुनो मन लायकै । जाते सब संशय दूर है, सुथिर होहु शिव पायकै ॥१०३॥ चौबोला। जो यह जीव लखै अपनेको, निज विकारतें बंध धरै । तौ विकार तजि वीतराग है, छूटन हेत उपाय करै ॥ . जो पाकृत बंधन समुझे तव, वेदांतीवत नाहिं डरै । यही अपेच्छा यहां कथन है, समुझे सो भवसिंधु तरै ॥१०॥ (४५) गाथा-१९० अशुद्धनयसे अशुद्ध आत्माकी ही प्राप्ति होती है । मनहरण । जाकी मति मैली ऐसी फैली जो शरीरपर, दहीको कहै की हमारो यही रूप है । तथा यह मेरो ऐसो चेरो भयो मोहहीको, छोड़े न ममत्व बुद्धि ,धेरै दौरधूप है ॥ सो तो साम्यरसरूप शुद्ध मुनिपद ताको, त्यागिके कुमारगमें चलत कुरूप है । ताको ज्ञानानंदकंद शुद्ध निरद्वंद सुख, मिल न कदापि वह परै भवकूप है ॥१०५॥ दोहा । है अशुद्ध नयको विषय, ममता मोह विकार । ताहि धरे वरतै सु तौ, लहै न पद अविकार ||१०६॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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