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________________ प्रवचनसार [१६३ दोहा। . तातै पुदगल दरव ही, निज सुभावते मीत । अति विचित्रगति कर्मको, कर्ता होत प्रतीत ॥ ९६ ॥ (४३) गाथा-१८८ अकेला आत्मा ही बंध है। मनहरण । सो असंख प्रदेश प्रमान जगजीवनिके, . मोह राग दोप ये कपायभाव संग है । ताहीत करमरूप रजकरि बधै ऐसे, सिद्धांतमें कही वृन्द बंधकी प्रसंग है ॥ जैसे पट लोध फटकड़ी आदितै कसैलो, चढ़त मजीठ रंग तापै सरवंग है । तैसे चिदानंदके असंख्ख परदेशपर, चढ़त कपायतै फरम रज रंग है ॥९७ ॥ (४४) गाथा-१८९ निश्चय-व्यवहारका अविरोध । बंधको कथन यह थोरेमें गथन निहचै, . मथनकरि ज्ञान तुलामें तुलतु है । जीवनिके होत सो दिखाई जिनराज मुनि, मंडलीको जाने उरलोचन खुलतु है ॥ यासों विपरीत जो है पुद्गलीक कर्मवंध, सो है विवहार बन्द काहेको भुलतु है । निज-निज भावहीके करता सरव दर्व, ___ यही भूले जीव कर्मझूलना झुलतु है ॥ ९८॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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