SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ ] कविवर वृन्दावन विरचित (४१) गाथा-१८६ पुद्गलोंको आत्मा यदि कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो आत्मा जड़ काँके द्वारा कैसे ग्रहण या त्यागरूप किया जाता ! मनहरण । सोई जीवदर्व अब संसार अवस्थामांहि, अशुद्ध चेतना जो विभावकी ढरनि है । ताहीको वन्यौ है करतार ताके निमितसों, याके आठ कर्मरूप धूलिकी धरनि है ॥ • सोई कर्म धूल मूल भूलको सुफल देहि, फेरी काहू कालमाहिं तिनकी करनि है । ऐसे बंधजोग भाव आपनो विभाव जानि, त्याग मेदज्ञानी जासों संमृत तरनि है ॥९॥ (४२) गाथा-१८७ पुद्गलकर्मीकी विचित्रताका (ज्ञाना वरणीय आदिरूप.) कर्ता कौन ? जबै जीव राग-दोष समल विभावजुत, शुभाशुभरूप परिनामको ठटत है । तबै ज्ञानावरनादि कर्मरूप परज याके, . जोग द्वार आयकै प्रदेशपै पटत है ॥ जैसे रितु पावसमें धाराधर धारनितें, धरनिमें नूतन अंकुगदि अटत है । तैसे ही शुभाशुभ अशुद्ध रागदोषनितें, पुग्गलीक नयो कर्म बंधन वटत है ॥९५॥ .
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy