SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पोक्षिका तिस पीछे इत काल दोष तें, अङ्गज्ञानकी भई विछित्ति । तब कितेक मुनि शिथिलाचारी, भये किई तिन पृथक् प्रवृनि ॥ तिनसों श्वेतांबर मत प्रगट्यो, रचे सूत्र विपरीत अहित । सो अब ताई प्रगट देखियत, यह विरोध मारगकी रित्त ॥ ३९ ॥ दोहा । । अब वरनों जिहि भांति इत, रह्यो जथारथ पन्थ । श्रीजिनसूत्र प्रमाण करि, सुखददशा निरन्थ ॥ ४० ॥ चोपाई। है जे जिनसूत्र सीखं उर धारी, रहे आचरन करत उदारी । तिनकी रही जथारथ चरिया, तथा प्ररूपन श्रुत अनुसरिया ॥४१॥ है तेई परम दिगम्बर जानो, सांचे ग्रन्थ पन्थ ठहरानो। वर्धमान शिवथान लहीते, छसौ तिरासी वरप वितीते ॥ ४२ ॥ है दूजे भद्रवाहु आचारज, प्रगटे तिहि मगमें गुनमारज । तिनकी परिपाटीमें भाई, किते वरप पीछे मुनिराई ॥ ४३ ॥ है जिन सिद्धान्तनकी परिवृत्ती, करी जाहि विधि सुनो सुवृती । जियशशि रचित वचनिका पावन, समयसारतें लिखों सुहावन ।। ४४ ॥ दोहा । एक भये 'धरसेन गुरु, तिनको सुनो वखात । जसो ज्ञान रह्यो तिन्हें, श्रुतपथतें परमान ॥४५॥ करखा छन्द (मात्रा ३७) . अग्रणीपूर्वकै, पांचवें वस्तुका, · महाकरमप्रकृति, नाम चौथा । इस पराभृतका, ज्ञान तिनको रहा, यहां लग अङ्गका, अंश तौ था । ४ ५-पं. जयचन्द्रजीकृत समयसारकी भाषा टीका।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy