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________________ प्रवचनसार [१२७ कजरकी रेनुकरि भरी कजरौटी जथा, . तथा वृन्द लोकमें विराजै दर्वथोक है ॥ ५३ ।। दोहा । धर्माधर्म दरव दोऊ, गति थितिके सहकार । ये दोनों जहँ लगु सोई, लोकसीम निरधार ॥ ५४ ।। (११) गाथा-१३७ यह किस प्रकारसे संभव है ? दोहा । ज्यों नभके परदेश हैं, त्यों औरनिके मान । ' अपदेशी परमानु ते, होत प्रदेश प्रमान । ५५ ॥ मनहरण । एक परमानूके बराबर अकाश छेत्र, ताहीको प्रदेश नाम ज्ञानी सिद्ध करी है । परमानु आप अपदेशी है सुभावहीते, सूछिम न यातें और ऐसी दिढ़तरी है । ताही परदेशते अनंत परदेशी नभ, धर्माधर्म एक जीव असंख प्रसरी है । ऐसे परदेशको प्रमान औ विधान करो, स्वामी कुन्दकुन्द वृन्द बंदै मोह भरी है ॥ ५६ ॥ प्रश्न-दोहा। नभ पुनि धर्माधर्मके, कहे प्रदेश जितेक । सो तो हम सरधा करी, ये अखंड थिर टेक || ५७ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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