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________________ १२६ ] कविवर वृन्दाधन विरचिः जीव लखै जुगपत सकल, केवलदृष्टि पसार । याहीते सब वस्तुको, होत ज्ञान अविकार ॥ ५० ॥ (९) गाथा-१३५ प्रदेश-अप्रदेशत्व । जीवरु पुदगल काय नभ, धरम अधरम तथेस । हैं असंख परदेशजुत, 'काल' रहित परदेस ॥ ५१ ॥ मनहरण । एक जीव दर्वके असंख परदेश कहे, संकोच विथार जथा दीपकपै ढपना । पुग्गल प्रमान एक अप्रदेशी है तथापि, मिलन शकतिसों बढ़ावै वंश अपना ॥ धर्माधर्म अखंड असंख परदेशी नभ, सर्वगत अनंत प्रदेशी वृन्द जपना । कालानूमें मिलन शकतिको अभाव तात, अप्रदेशी ऐसे जानें मिटै ताप तपना ॥ ५२ ॥ (१०) गाथा-१२६ वे द्रव्य कहाँ रहते हैं। लोक औ अलोकमें आकाश ही दरव और, धर्माधर्म जहां लगु पूरित सो लोक है । ताही विष जीव पुदगलको प्रतीत करो, कालकी असंख जुदी अनू हूको थोक है ॥ समयादि परजाय जीव पुदगलहीके, परिनामनिसों परगटत सुतोक है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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