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________________ १२२ ] कविवर वृन्दावन विरचित उत्तर-कवित्त (३१ मात्रा)। परमानू आदिक पुदगलको, इन्द्रीगम्य कहे रस हेत । जब वह खंध बंधमें ऐहै, शक्त व्यक्त करि सुगुन समेत ॥ तव सो इन्द्रीगम्य होइगो, व्यक्तरूप यो लखो सचेत । इन्द्रीनिके हैं विषय तासु गुन, तिसी अपेच्छा कथन कथेत ॥२५॥ पुनः प्रश्न-दोहा। पुदगल मूरतिवंत जिमि, तीमि है शब्द प्रतीत । तौ पुदगलको गुन कहो, परज कहौ मति मीत ॥२६॥ उत्तर। गुनको लच्छन नित्त है, परज अनित्त प्रतच्छ । गुन होते तित शबद नित, हावा करतो दच्छ ॥ २७ ॥ जो होती गुम तो सुनो, अनू आदिके माहिं । सदा शबद उपजत रहत, सो तौ लखियत नाहिं ॥ २८ ॥ खंधनिके व्याघाततै, होत शवद परजाय । प्रथम भेद भाषामई, दुतिय अभाषा गाय ॥ २९॥ मनहरण । केई मतवाले कहैं शब्द गुन अकाशको, तासों स्यादवादी कहै यह तो असंभौ है । आकाश अमूरतीक इन्द्रिनिके गम्य नाहिं शब्द तो श्रवणसेती होत उपालंभी है। कारन अमूरतको कारजहू तैसो होत, .. यह तो सिद्धांत वृन्द ज्यों सुमेरु थंभौ है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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