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________________ प्रवचनसार [ १२१ चौथो भेद नैनतें निहारिये जु छायादि सो, हस्तादिसों नाहिं गयौ जात परमान है । पांचमो विभेद जल तेल मिलै छेरै भेर्दै, छठो भूमि भूधरादि संधि न मिलान है ॥ १८ ॥ वर्णभेद-दोहा। अरुन पीत कारो हरो, सेत वरन ये पंच । . इनके अंतरके विपैं, भेद अनंते संच ॥ १९॥ रसभेद । खाटा मीठा चिरपिग, करुआ और कपाय । पांच मेद रसके कहे, तासु भेद बहु भाय ॥२०॥ गंधभेद । गंध दोय परकार है, प्रथम सुगंध पुनीत । दुतिय भेद दुरगंध है, यो समुझो उर मीत ॥२१॥ स्पर्शभेद । तपत शीत हरुवो गरू, नग्म कठोर कहाय । रुच्छ चीकनो फरसके, आठ मेद दरसाय ॥ २२ ॥ प्रश्न-चौपाई। पुदगलके गुन वरने जिते । इंद्रीगम्य कहे तुम तिते ॥ तहां होत शंका मनमाहिं । सुनिये कहों वेदकी छाहि ॥ २३ ॥ परमानू अति सूच्छिम भना | कारमानकी पुनि वरगना ॥ तिनमें चारों गुन वसैं । क्यों नहिं इन्द्री ग्राहै तिसै ॥ २४ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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