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________________ आयारदसा सूत्र २७ (११) अहावरा एकादसमा उवासग-पडिमासम्व-धम्म-रुई यावि भवइ । जाव-उद्दिष्ट-भत्तं से परिणाए भवइ । से णं खुरमुंडए, वा लुंचसिरए वा, गहियायार-भंडग-नेवत्थे । जारिसे समणाणं निग्गंथाणं घम्मे पण्णत्ते, तं सम्म कारणं फासेमाणे, पालेमाणे, पुरमओ जुगमायाए पेहमाणे, दळूण तसे पाणे उद्घट्ट पाए रोएज्जा, साहटु पाए रीएज्जा, तिरिच्छ वा पायं कट्टु रोएज्जा सति परक्कमे संजयामेव परिक्कमेज्जा, नो उज्जुयं गच्छेज्जा। फेवलं से नायए पेज्जवंधणे अवोच्छिन्ने भवड । एवं से कप्पति नाय-विहिं एतए। अब ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैं वह सर्वधर्मरुचिवाला होता है, यावत् (पूर्वोक्त सर्वव्रतों का परिपालक होता है ) उद्दिष्टभक्त का परित्यागी होता है । वह क्षुरा से सिर का मुंडन कराता है, अथवा केशों का लुंचन करता है, वह साधु का आचार और भाण्ड (पान) उपकरण ग्रहण कर जैसा श्रमण निर्ग्रन्थों का वेप होता है वैसा वेप धारण कर उनके लिए प्ररूपित अनगार धर्म का सम्यक् प्रकार काय से स्पर्श करता और पालन करता हुआ विचरता है, चलते समय युग-प्रमाण (चार हाथ) भूमि को देखता हुआ चलता है, उस प्राणियों को देखकर उनकी रक्षा के लिए अपने पैर उठा लेता है, उनको संकुचित कर चलता है, अथवा तिरछे पैर रखकर चलता है। (यदि मार्ग में प्रस जीव अधिक हों और) दूसरा मार्ग विद्यमान हो तो (जीव-व्याप्त मार्ग को छोड़कर) उस मार्ग पर चलता है, वह पूरी यतना के साथ चलता है, किन्तु विना देखे-भाले ऋजु (सीधा) नहीं चलता है । केवल ज्ञाति-वर्ग से उसके प्रेम-बन्धन का विच्छेद नहीं होता है, अतः उसे ज्ञाति के लोगों में भिक्षावृत्ति के लिए जाना कल्पता है, अर्थात् सगे-सम्बन्धियों में गोचरी कर सकता है। सूत्र २८ तत्य से पुवागमणेणं पुवाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउते भिलिंगसूवे, कप्पति से चाउलोदणे पडिग्गहितए, नो से कप्पति भिलिंगसूवे पडिग्गहित्तए।
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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