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________________ १५६ छेवसुताणि सदेवमणुयासुराए जाव-बहूई वासाई केवलि-परियागं पाउणइ, पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं भाभोएइ, आभोएत्ता भत्तं पच्चक्खाएइ, पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताई अणसणाई छेदेइ । तो पच्छा चरमेहिं ऊसास-नीसासेहि सिज्झति जाव-सव्वदुक्खाणमंतंकरेइ । उस समय वह अरहन्त भगवन्त जिन केवलि सर्वज सर्वदर्शी हो जाता है। वह देव मनुष्य आदि की परिपद में धर्म देशना देता हुता....यावत्....अनेक वर्षों का केवलि-पर्याय प्राप्त होता है। आयु का अन्तिम भाग जानकर वह भक्त-प्रत्याख्यान करता है। अनेक दिनों तक आहार त्याग कर अनशन करता है । बाद में वह अन्तिम श्वासोच्छवास लेता हुआ सिद्ध होता है। यावत् सब दुखों का अन्त करता है। सूत्र ५२ एवं खलु समणाउसो! तस्स अणिदाणस्स इमेयारूवे कल्लाण-फल-विवागे जं तेणेव भवग्गहणणं सिज्सति जाव-सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ । हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान रहित कल्याणकारक साधनामय जीवन का विपाक-फल यह है कि वह उसी भव से सिद्ध होता है...यावत्...दुःखों का अन्त करता है। सूत्र ५३ तए णं ते बहवे निग्गंथा य निग्गंधीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोयंति पडिक्कम्मति जाव-अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जति । उस समय उन अनेक निग्रंथ-निर्ग्रन्थियों ने श्रमण भगवान महावीर से पूर्वोक्त निदानों का वर्णन सुनकर श्रमण भगवान महावीर को वंदना, नमस्कार
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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