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________________ आयारदसा १७७ स्वयं के विकुर्वित देव या देवियों के साथ अनंगक्रीड़ा करते हैं या अपनी देवियों के साथ अनंग क्रीड़ा करते हैं। __ यदि इरा (तप-नियम एभं ब्रह्मचर्य-पालन का फल प्राप्त हो तो (पूर्व के समान सारा वर्णन देखें पृष्ठ १५८ यावत् ।) प्रश्न-वे केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा प्रतीति करते हैं ? उत्तर-यह संभव नहीं है । क्योंकि वे अन्य दर्शनों में रुचि रखते हैं। अतः पर्ण कुटियों में रहने वाले अरण्यवासी तापस-और ग्राम के समीप की वाटिकाओं में रहने वाले तापस तथा अदृष्ट होकर रहने वाले जो तांत्रिक है असंयत हैं। प्राण भूत जीव और सत्व की हिंसा से विरत नहीं हैं। वे सत्यमृषा (मिश्र भाषा) का प्रयोग करते हैं। यथा-मैं हनन योग्य नहीं हूं, हनन योग्य हैं वे अन्य हैं" मैं आदेश देने योग्य नहीं है, आदेश देने योग्य हैं वे अन्य है मैं परिताप देने योग्य नहीं हूँ, परिताप देने योग्य हैं वे अन्य हैं मैं पीड़न योग्य नहीं हूँ, पीड़न योग्य हैं वे अन्य है। इसी प्रकार वे स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में मूछित-प्रथित, गृद्ध एवं आसक्त यावत् पृष्ठ जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी असुर लोक में किल्विषिक देवस्थान में उत्पन्न होते हैं। वहां से वे विमुक्त हो (देह छोड़) कर पुनः भेड़-बकरे के समान मनुष्यों में मूक (गूगा-बहरा) रूप में उत्पन्न होता है। हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का विपाक-फल यह है कि वे केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा प्रतीति एवं रुचि नहीं रखते है। __ सत्तमं णियाणं सूत्र ३९ एवं खलु समगाउसो ! भए धम्मे पण्णसे। जाव-माणुस्सग्गा खलु कामभोगा अधुवा, तहेव। . संति उड्ढं देवा देवलोगंसि । तत्थ णं णो अणेसि देवाणं अण्णे देवे अण्णं देवि अभिमुंजिय अभिजुजिय परियारेइ, णो अपणो चेव अप्पाणं वैउध्विय वेउब्विय परियारेइ, ... अप्पणिज्जियामो देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारे । जह इमस्स तव नियमस्स तं सव्वं ।
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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