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________________ १४२ छेवसुत्ताणि आठवाँ मोहनीय स्थान जो निर्दोष व्यक्ति पर मिथ्या आक्षेप करता है अथवा अपने दुष्कर्मों का उस पर आरोपण करता है वह महामोहनीय कर्म का वन्ध करता है। ॥८॥ नोवां मोहनीय स्थान___ जो कलहशील है और भरी सभा में जान-बूझकर मिश्र भाषा (सत्य में मिथ्या मिलाकर) वोलता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है || दशवां मोहनीय स्थान जो कूटनीतिज्ञ मंत्री किसी बहाने से राजा को राज्य से बाहर भेजकर राज्य लक्ष्मी का उपभोग करता है, रानियों का शील खंडित करता है और विरोध करने वाले सामन्तों का तिरस्कार करके उनके भोग्य पदार्थों का विनाश करता है, वह महामोहनीय कर्म का वन्ध करता है ॥१०-११।। ग्यारहवां मोहनीय स्थान जो बालब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी अपने आपको बालब्रह्मचारी कहता है और स्त्रियों का सेवन करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥१२॥ बारहवां मोहनीय स्थान_____ जो ब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी "मैं ब्रह्मचारी हूँ" इस प्रकार कहता है वह मानों गायों के बीच में गधे के समान वेसुरा वकता है और आत्मा का अहित करने वाला वह मूर्ख मायापूर्वक मृषा वोलकर स्त्रियों में आसक्त रहता है अतः महामोहनीय कर्म का वन्ध करता है। ॥१३-१४॥ तेरहवां मोहनीय स्थान जो जिसका आश्रय पाकर आजीविका कर रहा है और जिसके यश से अथवा जिसकी सेवा करके समृद्ध हुआ है-आसक्त होकर उसी के सर्वस्व का अपहरण करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥१५॥ चौदहवां मोहनीय स्थान जो अमावग्रस्त किसी समर्थ व्यक्ति का या ग्रामवासियों का आश्रय पाकर सर्व साधन सम्पन्न बन जाता है वह यदि ईर्ष्या से आविष्ट एवं संक्लिष्ट चित्त होकर आश्रयदाताओं के लाभ में अन्तराय उत्पन्न करता है तो महामोहनीय कर्म का वन्ध करता है । ॥१६-१७॥
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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